इमरान से क्यों नाराज हुए प्रिंस सलमान? सऊदी-PAK के रिश्ते में इसलिए आई दरार
सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों ही फिलहाल मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. रियाद ने पिछले महीने अपने सबसे बड़े तेल संयंत्र पर हमला झेला है. इसके बाद ईरान के खिलाफ अधिकतम दबाव की नीति और सऊदी में ज्यादा अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी का रास्ता खुल गया है. दूसरी तरफ, इस्लामाबाद कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में जुटा हुआ है, जिसमें वह खाड़ी देशों से हस्तक्षेप कराने की असफल कोशिशें कर रहा है.
पाकिस्तान वर्तमान में चीन के अलावा किसी देश से अपनी करीबी को जगजाहिर करता है तो वह सऊदी अरब है. आर्थिक संकट का सामना कर रहे पाकिस्तान को सऊदी अरब दोनों हाथों से आर्थिक मदद पहुंचाता रहा है और दोनों देशों के बीच रक्षा मामले को लेकर भी सहयोग रहा है लेकिन अब पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच दशकों की प्रगाढ़ दोस्ती में दरार पैदा हो गई है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान पाकिस्तानी पीएम इमरान खान से नाराज हैं. पाकिस्तानी मैगजीन फ्राइडे टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यू यॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तानी प्रीमियर इमरान खान की कूटनीति के कुछ पहलुओं को लेकर सऊदी क्राउन प्रिंस नाराज थे.
स्थानीय मैगजीन में छपे लेख के मुताबिक, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इस बात से बिल्कुल खुश नहीं थे कि इमरान खान रेचेप तैय्यप एर्दोआन और मलेशियाई पीएम महातिर मोहम्मद के साथ मिलकर मुस्लिम दुनिया का प्रतिनिधित्व करें और बिना उनकी मंजूरी के ईरान के साथ बातचीत करें.
संयुक्त राष्ट्र महासभा में इमरान खान ने तुर्की राष्ट्रपति एर्दोआन और मलेशियाई पीएम महातिर से मुलाकात की थी जहां तीनों नेताओं ने मिलकर मुस्लिम दुनिया की समस्याओं को उठाया बल्कि इस्लामोफोबिया से लड़ने की भी बात कही. तीनों नेताओं ने इसके लिए एक अंग्रेजी भाषा का चैनल खोलने की भी बात कही. संयुक्त राष्ट्र महासभा में खान ने ऐलान किया था कि वह खाड़ी में तनाव घटाने के लिए ईरान के साथ मध्यस्थता करने की कोशिश भी कर रहे हैं. जाहिर है कि खुद को मुस्लिम दुनिया का संरक्षक कहने वाले सऊदी अरब को इमरान खान के ये बयान नागवार गुजरे होंगे.
ईरान में 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति और अफगानिस्तान में सोवियत के हमले के बाद से ही सऊदी का पाकिस्तान पर प्रभाव बढ़ा है. ईरानी क्रांति की वजह से सऊदी ने पाकिस्तान में सुन्नीवाद को नियंत्रित करने के लिए उस पर धनवर्षा की. वहीं, सोवियत-अफगान युद्ध के दौरान, सऊदी को मदरसों की फंडिंग के जरिए भी पाकिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका मिल गया.
सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों ही फिलहाल मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. रियाद ने पिछले महीने अपने सबसे बड़े तेल संयंत्र पर हमला झेला है. इसके बाद ईरान के खिलाफ अधिकतम दबाव की नीति और सऊदी में ज्यादा अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी का रास्ता खुल गया है. दूसरी तरफ, इस्लामाबाद कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में जुटा हुआ है, जिसमें वह खाड़ी देशों से हस्तक्षेप कराने की असफल कोशिशें कर रहा है.
पाकिस्तान के लिए ईरान के प्रति तटस्थता छोड़े बिना सऊदी को समर्थन देना मुश्किल हो गया है. ईरान के मुद्दे पर यूएस और सऊदी अरब का एक ही रुख है. सऊदी की तरह वॉशिंगटन भी ये नहीं चाहता है कि पाकिस्तान के ईरान के साथ रिश्ते मजबूत हों.पाकिस्तान अब सऊदी को रक्षा सहयोग बढ़ाकर ही उसका साथ पाने की कोशिश कर रहा है. सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के संबंधों में सऊदी की सुरक्षा जरूरतें ही केंद्र में रही हैं. ये भी सच्चाई है कि रियाद की विदेश नीति में शामिल रहे सभी ताकतवर देशों को उसके सैन्य ऑपरेशनों में भी उतरना पड़ा है. सीरिया, यमन और तेल अवीव में वॉशिंगटन का सऊदी के साथ संयुक्त सैन्य ऑपरेशन चला तो रियाद की तेहरान से प्रतिद्वंद्विता के चलते यूएई ने हूती विद्रोहियों से लड़ने में मदद की. सऊदी के नेतृत्व में ईरान और उसके सहयोगियों के खिलाफ सामूहिक बहिष्कार भी किया गया. दूसरी तरफ, पाकिस्तान खाड़ी देशों के विवादों- यमन, इराक, लीबिया और सीरिया में तटस्थता बनाए रखते हुए राजनीतिक तौर पर समाधान निकालने की वकालत करता रहा है.
हाल ही में जब पाकिस्तान ने रॉयल सऊदी लैंड फोर्सेस (RSLF) को प्रशिक्षित और हथियारों से लैस करने का फैसला किया तो इसे पाकिस्तान को रियाद को खुश करने की कोशिश ही करार दिया गया. सऊदी रॉयल फोर्स के लेफ्टिनेंट जनरल फहद अल-मोतैर ने पाकिस्तान के इस कदम की तारीफ करते हुए इसे क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के लिए अहम बताया.
इस्लामाबाद और रियाद के रिश्ते इसलिए भी सीमित हो गए हैं क्योंकि सऊदी के राष्ट्रीय और विदेश मामलों में अमेरिका का दखल बढ़ गया है. रियाद की भारत से नजदीकी और इजरायल फिलिस्तीन शांति प्रक्रिया ऐसे वक्त में आगे बढ़ रही है जब वॉशिंगटन के भी इन देशों के साथ द्विपक्षीय रिश्ते मजबूत हुए हैं. यहां तक कि इमरान खान का सऊदी और ईरान के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव भी अमेरिकी कोशिशों का ही नतीजा है. कुल मिलाकर अमेरिका से अलग, इस्लामाबाद के पास रियाद के साथ स्वतंत्र तौर पर अपने संबंध मजबूत करने का विकल्प नहीं रह गया है.
- सऊदी-पाकिस्तान के संबंध वैसे तो ज्यादातर सामान्य ही रहे हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उनका सहयोग बेशर्त है. पाकिस्तान सऊदी और ईरान के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश करता रहा है. अप्रैल 2015 में 1.5 अरब डॉलर की सऊदी मदद लेने के बावजूद पाकिस्तान की संसद में यमन में ईरान समर्थित हूतियों के खिलाफ सऊदी की लड़ाई में तटस्थता बनाए रखने का प्रस्ताव पास किया गया जिससे सऊदी खफा हो गया था.
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इसके अलावा, पाकिस्तान ने ना केवल यमन संघर्ष में तटस्थ बने रहने का फैसला किया बल्कि रियाद के सैन्य ऑपरेशन में किसी भी तरह की सैन्य मदद देने से भी इनकार कर दिया. सऊदी अरब के सहयोगियों ने उस वक्त पाकिस्तान पर ईरान का साथ देने का आरोप लगाते हुए उसके कदम को विरोधाभासी, खतरनाक और अप्रत्याशित बताया था.