राहुल गांधी की बजाय सत्ता पक्ष के खिलाफ प्रियंका अब कांग्रेस की ज्यादा बड़ी हथियार, प्रियंका का सहारा पाकर चल पड़ी कांग्रेस की नब्ज!

लोकेशन- चुनार का किला। सियासत का हाई वोल्टेज ड्रामा। पूरे 26 घंटे का। मुख्य किरदार- कांग्रेस महासचिव प्रियंका। समझते हैं कि इस शुक्रवार से शनिवार तक चला ये पूरा सियासी खेल कांग्रेस और प्रियंका कहां ले जाएगा।

  • चुनार में बैठकर ही प्रियंका ने नरसंहार के पीड़ित परिवारों के साथ पार्टी के लिए बड़ा काम कर दिया
  • प्रियंका चुनार के किले से हिन्दुत्व का झंडा बुलंद करने वाले योगी आदित्यनाथ को चुनौती दे आईं
  • सोनभद्र जाने से प्रियंका को रोक लिया गया था, वो वहां पीड़ित परिवारों से मिलने जा रही थीं

नई दिल्ली। प्रियंका सोनभद्र नहीं जा पाईं। मगर चुनार के किले में डटी रहीं। चुनार में बैठकर ही प्रियंका ने नरसंहार के पीड़ित परिवारों के साथ पार्टी के लिए बड़ा काम कर दिया। कांग्रेस पार्टी की उखड़ी हुई सांसें फिर से चलने लगीं, नब्ज में हलचल-सी दिखी।

चुनार से निकलने के बाद सीधे वाराणसी के काल भैरव मंदिर में पहुंची प्रियंका जब माथे पर भभूत लगाकर मीडिया के सामने आईं, तो समर्थकों ने कुछ वक्त के लिए पार्टी को प्रियंका के चेहरे में पुनर्जीवित होते हुए जरूर देखा।

 

चुनार के किले से आया संदेश
अजीब इत्तेफाक है। प्रियंका गांधी चुनार के किले से हिन्दुत्व का झंडा बुलंद करने वाले योगी आदित्यनाथ को चुनौती दे आईं। 26 घंटे चैलेंज करती रहीं। उस चुनार के किले से, जो कभी हिन्दू शक्ति का केंद्र था। हालांकि बाद में इस किले पर उन कई शासकों ने अपना विजय ध्वज लहराया, जिनका दबदबा इस इलाके या भारत की भूमि पर रहा। खैर, ये तो इतिहास की बातें हैं। लेकिन इतना तो तय है कि 5 हजार साल के इतिहास को संजोए इस किले से कुछ घंटों में ही प्रियंका ने कई संदेश तो दे ही दिए। विपक्ष को ही नहीं, बल्कि अपनी पार्टी को भी।

चुनार के किले से क्या निकला?
सोनभद्र जाने से प्रियंका को रोक लिया गया। 26 घंटे बाद शायद योगी सरकार अपने इस फैसले पर अफसोस जरूर कर रही होगी। शायद उन्हें प्रियंका के रुख का अंदाजा नहीं रहा। वह न सिर्फ अड़ गईं, बल्कि पीड़ितों से मिलने तक इलाका छोड़ने से ही मना कर दिया। यूपी के सरकारी अमले ने प्रियंका को सोनभद्र न जाने देकर अपनी फजीहत टालने की कोशिश जरूर की, लेकिन पीड़ितों को चुनार के किले तक लाने के लिए विवश कर एक बार फिर प्रियंका जीत गईं।

अगर समाचार चैनल्स पर दिखना और दिखकर राजनीतिक रूप से बिकना ही पैमाना है, तो प्रियंका का काम तो हो गया। इसके बाद तय हो गया कि-

1. नेहरू-गांधी परिवार राजनीति की निष्क्रिय गली में नहीं जा रहा है।

2. कांग्रेस पार्टी में प्रियंका गांधी की भूमिका धीरे-धीरे बड़ी होनी है।

3. राहुल गांधी की बजाय सत्ता पक्ष के खिलाफ प्रियंका अब कांग्रेस की ज्यादा बड़ी हथियार रह सकती हैं।

4. यूपी के लिए कांग्रेस का 2022 के लिए अपना एक अलहदा प्लान जरूर रहने जा रहा है।

प्रियंका सिर्फ कांग्रेस महासचिव नहीं
चुनार के किले से जो एक बात पक्की हुई वह है प्रियंका की पार्टी में बढ़ी हुई स्थिति। प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव भर हैं। अच्छा ओहदा है, लेकिन इतना बड़ा भी नहीं कि एक महासचिव किसी आंदोलन पर निकले और पूरी पार्टी उसके पीछे खड़ी हो जाए। प्रियंका के साथ पूरी पार्टी खड़ी दिखी। दिल्ली से लेकर यूपी तक।

छत्तीसगढ़ से लेकर राजस्थान तक। और तो और, टीएमसी के दूत डेरेक ओ ब्रायन भी प्रियंका के लिए यूपी की ओर चल पड़े। राहुल को विपक्ष का नेता मानने से बार-बार आनाकानी करने वाली ममता बनर्जी की पार्टी खुलकर प्रियंका का समर्थन करती दिखी। वाराणसी में कांग्रेस के आधा दर्जन से ज्यादा नेता खुद को योगी की पुलिस की हिरासत में पाकर धन्य महसूस कर रहे थे। वजह सिर्फ एक थी। उनको ये ‘सुखद तकलीफ’ प्रियंका गांधी की वजह से झेलनी पड़ रही थी।

प्रियंका का यूपी मिशन
मार्च और अप्रैल महीने की बात है। तब देश चुनावी तपिश से में तप रहा था। तभी प्रियंका ने अपने समर्थकों के बीच एक बयान दिया था। 2022 की तैयारी कीजिए। 2022 यानी यूपी का विधानसभा चुनाव। तब सुनकर अजीब भी लगा था। सवाल था कि 2019 के अग्निपथ के बीच भविष्य की बात क्यों? लेकिन अब प्रियंका की योजना समझ में आ रही है।

चुनाव नतीजों के बाद देश में कई बड़ी घटनाएं घट गईं। राहुल गांधी की प्रतिक्रिया इन घटनाओं पर या तो आई ही नहीं या बेहद ठंडी रही। लेकिन इसी दौरान प्रियंका गांधी की सक्रियता अच्छी-खासी रही। खासकर यूपी के मुद्दों पर प्रियंका पिछले डेढ़ महीनों से खासी मुखर हैं। यूपी की हर घटना के बाद सवाल उठा रही हैं। योगी आदित्यनाथ पर। यूपी की पुलिस पर। यूपी के पूरे सिस्टम पर।

प्रियंका के आने से यूपी में क्या बदल जाएगा?
मायावती सोचती हैं कि दलित वोटों पर उनका एकाधिकार है। अखिलेश यादव को लगता है कि मुसलमान और यादव उनकी पार्टी के सिवा कहीं देख भी नहीं सकते। हिन्दुत्व और राष्ट्रवादी सोच रखने वालों को बीजेपी अपना स्थायी समर्थक मानती है।

बीजेपी जातियों से जाति के नाम पर पार्टी से जुड़ने की अपील नहीं करती। लेकिन कभी दलितों को, कभी पिछड़ों को, तो कभी मुसलमानों को दूसरी पार्टियों से छले जाने की याद जरूर दिलाती रहती है। ये भी एक तरह से जाति के नाम पर खुद से जोड़ने का ही जतन है।

कांग्रेस की तैयारियां और प्रियंका की रणनीति रहनी है अहम
इसके बाद सवाल बड़ा है। फिर कांग्रेस और प्रियंका के लिए यूपी में शेष क्या है? वोटर्स का वो कौन-सा हिस्सा है, जो कांग्रेस से जुड़ेगा और प्रियंका यूपी में पार्टी के गुजरे दिनों को वापस ले आएंगी? कुछ नहीं कहा जा सकता। शायद प्रियंका भी भरोसे के साथ कुछ नहीं कह सकतीं कि 2022 और फिर 2024 में क्या होने वाला है? ये प्रियंका की रणनीति पर निर्भर करेगा। केंद्र और राज्य में बीजेपी के परफॉर्मेंस पर निर्भर करेगा। और दूसरों की कमजोरियों को भरने के लिए कांग्रेस के संगठन की तैयारियों पर सबसे ज्यादा निर्भर करेगा।

चुनार के किले से आए संदेश को भी लोग तभी याद रखेंगे, जब प्रियंका बगैर थके इसी तरह से पार्टी को सक्रिय रखेंगी। लेकिन तभी सवाल यह भी रहेगा कि खासतौर से पार्टी के सीनियर नेता कितना पसीना बहाते हैं। क्योंकि प्रियंका 2019 के चुनाव में राहुल के अकेले पड़ जाने की शिकायत पहले ही कर चुकी हैं। सामने मोदी का अथक और प्रखर नेतृत्व है, जिसने अभी-अभी पहले से भी ज्यादा दमदारी से देश का विश्वास जीता है।

-अश्विनी कुमार , टाइम्स नेटवर्क 

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