नई दिल्ली. दिल्ली में विधानसभा चुनावोंं (Delhi assembly elction 2020) की वोटिंग के एक दिन बाद यानी 9 फरवरी को आरके पुरम (RK Puram) में रविदास धर्मस्थान ट्रस्ट अपने कवि और संत की जयंती का उत्सव मनाएगी. इसी तैयारी में जुटे प्रेमजीत कहते हैं कि विभिन्न दलों के राजनीतिक नेताओं ने दलित समुदाय (Dalit Community) के एक वर्ग को लुभाने के लिए यहां का दौरा किया है. ये दौरे अगस्त 2019 में तुगलकाबाद में श्री गुरु रविदास मंदिर (Sant Ravidas temple) के विध्वंस के बाद लोगों को मनाने की रणनीति के तहत किए गए. इस मंदिर को सुप्रीम कोर्ट (Supreme court) के ऑर्डर के बाद दिल्ली विकास प्राधिकरण ने तोड़ा था.
लोककथाओं के अनुसार, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु संत रविदास इस जगह पर सिकंदर लोधी के समय 1509 में आए थे. उनके उपासकों ने रविदासिया धर्म की स्थापना की. माना जाता है ये सिख धर्म से अलग होकर बना है. मंदिर के टूटने के बाद दलित समुदाय ने यहां बड़ा विरोध प्रदर्शन किया था और मांग की थी कि मंदिर को दोबारा बनाया जाए, जहां वह 500 साल से था. अभी नया मंदिर बनाने के लिए विचार-विमर्श जारी है.
ज्यादातर दलित करते रहे हैं कांग्रेस का समर्थन
प्रेमजीत कहते हैं कि दिल्ली में जो दलित हैं, वह ज्यादातर पंजाब और दूसरे क्षेत्रों से आए हैं. इनमें से ज्यादातर कांग्रेस को सपोर्ट करते रहे हैं. लेकिन अभी हाल में समुदाय में से कुछ हिस्सा आप की ओर भी गया है. हिंदुत्व का मुद्दा उन्हें नहीं लुभाता. हालांकि प्रेमजीत कहते हैं कि नए युवा जो टेक्नोलॉजी फ्रेंडली हैं, उनके बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. विश्लेषकों के अनुसार, कांग्रेस ने 1998 से 2013 तक अगर दिल्ली में लगातार तीन चुनाव जीते हैं तो इसके पीछे दलित समुदाय को उसका बड़ा समर्थन ही था. वह उसका कोर वोटर था. अब तक मायावती भी दलित और पिछड़े वर्ग के वोट हासिल करती थीं, लेकिन वह इतना बड़ा नहीं था, जिससे शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस को नुकसान पहुंचे.
कांग्रेस का सुस्त चुनाव अभियान बदल सकता है तस्वीर
विशेषज्ञों के अनुसार, इस बार दिल्ली में कांग्रेस का चुनाव अभियान जिस धीमी गति से चला है, उस कारण ये वोट दूसरी पार्टियां हड़प सकती हैं. दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 12 सीटें आरक्षित हैं. इनमें से सिर्फ गोकलपुरी को 2008 में बीएसपी जीत सकी थी. चुनाव विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि 1998 के चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर बढ़ा था. 2008 में आकर उन्होंने एक सीट पर जीत भी हासिल कर ली. 2008 के बाद गोकलपुरी सीट या तो कांग्रेस के पास रही या आम आदमी पार्टी के पास. बाकी की आरक्षित 11 सीटों पर 1993 से न तो कभी बीएसपी और न ही बीजेपी अच्छा प्रदर्शन कर पाई.
दिल्ली में 20 लाख दलित आबादी
दिल्ली बीएसपी चीफ लक्ष्मण सिंह कहते हैं. दिल्ली में 20 लाख दलित आबादी है और 12 सुरक्षित सीटे हैं. बीएसपी ने दिल्ली की सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. उसने सभी समुदायों को दिल्ली में टिकट दिया है. अगर दिल्ली में सिर्फ दलित ही बीएसपी को वोट कर दें तो हमें किसी भी जरूरत न हो. लेकिन चुनाव पर नजर रखने वाले मानते हैं कि दिल्ली में जाति की राजनीति नहीं होती. एक्टिविस्ट अशोक भारती कहते हैं कि दिल्ली में भले जाति की राजनीति असरदार नहीं है, लेकिन जातिगत पहचान जरूर है. कांग्रेस के कमजोर चुनाव प्रचार के बाद दलित किसे अपना समर्थन देंगे, ये बड़ा सवाल है. संभव है वह इस बार फिर आप के साथ जाए सकते हैं. आप की बड़ी जीत के पीछे कांग्रेस का वोट शेयर उसकी ओर खिसकना ही माना गया था.
तीन साल पहले दिल्ली में बीएसपी ने दलित वोटर्स को लुभाने की कोशिश की थी. पार्टी को इस कारण वोट भी मिले, लेकिन ज्यादातर दलितों ने अपना समर्थन आप को ही दिया. प्रयागराज के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर बद्री नारायण के अनुसार, आम आदमी पार्टी ने जिस तरह गरीब समर्थक एजेंडे को आगे बढ़ाया है, उस कारण वोटर्स उसके पक्ष में जाते दिख रहे हैं.
अलग-अलग पहचान
जेएनयू में सोशल साइंस के प्रोफेसर सुरिंदर एस जोडका कहते हैं कि दिल्ली में दलित आबादी में बहुत विविधता है. इसीलिए वह उत्तर प्रदेश या पंजाब की तरह यहां वोटिंग नहीं करते. उत्तर प्रदेश में उनके लिए बीएसपी जैसी पार्टी है, लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं है. इसलिए यूपी के जैसे उनकी तुलना यहां नहीं की जा सकती. यहां पर दलित ही नहीं सभी अल्पसंख्यक हैं. जोडका कहते हैं कि दिल्ली में हम विविधता देखते हैं, जिसका अर्थ है कि विभिन्न व्यवसायों का प्रतिनिधित्व करने वाले दलित हैं. कुछ व्यवसाय अब भी दलित और मुस्लिमों के लिए ही हैं..”
सस्ता पानी और बिजली भी बड़ा मुद्दा
रविदास धर्मस्थान ट्रस्ट में प्रेमजीत के सहयोगी मानते हैं कि दिल्ली में सस्ती बिजली और पानी का मुद्दा है. वह बिजली के कम बिल से खुश हैं. वह कहते हैं कि हम सबको बिजली के भारी भरकम बिलों से निजात मिली हुई है.
हिंदुत्व का मुद्दा वाल्मीक के लिए अहम, रविदासिया के लिए नहीं
सुरिंदर जोडका कहते हैं कि दिल्ली में रविदासिया बीआर आंबेडकर को मानने वाले हैं, ऐसे में हिंदुत्व या शाहीन बाग जैसे मुद्दे उन्हें उतना नहीं लुभाएंगे. लेकिन वाल्मीक समाज पर ये असर डाल सकते हैं, क्योंकि उन्हें ये नाम आर्य समाज और हिंदू महासभा ने ही दिया है.