कोई मनुष्य धरती पर ऐसा नहीं, जो दिन में कम से कम दो वक्त खाना न खाता हो। कपड़े न पहनता हो, जो एक छत के नीचे न रहता हो। जिसके कपड़े गाहे-बगाहे फटते न हों, बटन न टूटती हो। औरत हो या मर्द, रोटी बिना किसी का गुजारा नहीं।
कितने मजे की बात है कि इस रोटी को बनाने में मर्द का उतना ही हाथ है, जितना मछली के तैरने में साइकिल का। सैकड़ों सालों से रोटियां बेलने की जिम्मेदारी औरतों ने अकेले उठा रखी है।
रोज टीप-टॉप सफेदी के चमकार में नहाई शर्ट पहनकर पुरुष दफ्तर तो जा रहे हैं, लेकिन उस शर्ट को सफेद बनाने के लिए अपने हाथ सिर्फ औरतें गला रही हैं। क्लास में फर्स्ट आए बच्चे की मार्कशीट हाथ में लिए पुरुष इतरा तो रहे हैं, लेकिन बच्चे का होमवर्क अकेले औरत करवा रही है।
आपको पता है कि एक वर्किंग पुरुष और एक सो कॉल्ड नॉन वर्किंग औरत यानी हाउसवाइफ हफ्ते में कितने घंटे काम करते हैं।
पुरुष करते हैं 42 घंटे और औरतें करती हैं 112 घंटे। ये हमारा फेमिनिस्ट ख्याल भर नहीं है। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी है। और अब उन औरतों की बात करें, जो घर से निकलकर नौकरी करने भी जाती हैं। उस केस में पुरुष हफ्ते में 51 घंटे काम करते हैं और औरतें 126 घंटे। पुरुषों से करीब तीन गुना ज्यादा।
फिर भी औरतों को मिलने वाला उस श्रम का प्रतिदान पुरुषों से 70 गुना कम है। पूरी दुनिया में औरतें पुरुषों से 70 गुना कम पैसा कमाती हैं। उनसे 76 गुना कम संपत्ति पर मालिकाना हक रखती हैं।
औरतें सबसे ज्यादा काम करती हैं और सबसे कम पैसा पाती हैं, क्योंकि औरतों द्वारा किए जा रहे श्रम का एक बड़ा हिस्सा बेगार है। परिवार के लिए, पति के लिए, बच्चों के लिए, सास-ससुर के लिए। उस श्रम का उसे कोई मूल्य नहीं मिलता।
थोड़ा गौरवगान मिल जाता है। औरत तो अन्नपूर्णा हो, औरत देवी है, औरत मां है औरत से घर है, औरत महान है।
सबके लिए मुफ्त में अपनी हड्डियां गलाने वाली और बदले में ढेला भी न मांगने वाली तो महान ही होगी। मालिकों के लिए सबसे महान वो कर्मचारी होता है जो सबसे कम तनख्वाह में भी बैल की तरह रात-दिन जुटा रहे। हक मांगने लगे, सैलरी बढ़ाने की बात करने लगे तो गले की हड्डी हो जाता है।
ये जितने तथ्य, आंकड़े ऊपर दिए गए हैं, इसमें से कुछ भी नया नहीं है और न पहली बार कहा गया है। पूरी दुनिया में पिछले 30 सालों में ऐसी 3000 से ज्यादा स्टडीज हो चुकी हैं, जो बताती हैं कि हमारे परिवारों और विवाह संस्था के भीतर घरेलू श्रम को लेकर कितनी गैरबराबरी है।
ये गैरबराबरी औरतों को मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार कर रही है।
हद तो तब हो गई, जब कोविड महामारी के दौरान पति-बच्चों ने ऑफिस और स्कूल जाना छोड़ घर में ही डेरा लगा लिया था और औरतों के घरेलू श्रम का अनुपात रातों-रात और कई गुना बढ़ गया था। ये भी यूएन वुमेन की स्टडी है, हमारा भावातिरेक नहीं।
यूएन वुमेन के मुताबिक औरतों का काम लॉकडाउन के दौरान 17 गुना बढ़ गया था। कल्पना करिए, जो औरत सामान्य स्थिति में भी हफ्ते के सात दिन रोज 16 घंटे काम कर रही थी, महामारी ने उसके काम में 17 फीसदी का इजाफा कर दिया.
हालात बड़े मुश्किल हैं, औरतों की कहानी बड़ी दुखद, लेकिन सवाल ये है कि ये कहानी बदले कैसे। जिसे सालों से बैठकर बिना उंगली हिलाए खाने की आदत पड़ी हुई है, जिसे सबकुछ थाली में सजाकर हाथों में परोसा जा रहा है, उसके लिए बहुत मुश्किल है अपने प्रिविलेज को छोड़ पाना।
इसलिए इस प्रिविलेज को छुड़वाने का एक मारक तरीका निकाला माइकल किम्मेल ने। माइकल 71 साल के हैं, लेकिन फेमिनिस्ट हैं। न्यूयॉर्क में प्रोफेसर हुआ करते थे। 60 के दशक में जब अमेरिका में फेमिनिस्ट मूवमेंट की शुरुआत हुई तो उस मूवमेंट के चंद पुरुष चेहरों में से एक थे माइकल।
नई उम्र के लड़कों को माइकल सिखाते हैं कि फेमिनिस्ट बनो। मजे की बात ये है कि वो ये बात ये कहकर नहीं सिखाते कि यही न्याय है, बराबरी है। वो कहते हैं, फेमिनिस्ट लड़कों को लड़कियां पसंद करती हैं। इस तरह देखा जाए तो जेंडर सेंसिटिव लड़कों के लिए गर्लफ्रेंड मिलने के चांसेज ज्यादा हैं।
जाहिर है, वो अमेरिका की बात कर रहे हैं। हमारे देश में तो लड़कों को लड़की से बात तक करने का शऊर न हो, तो भी मां-बाप ब्याह के लिए लड़कियों की लाइन लगा देते हैं। इस देश में शादी करने, प्रेम करने, गर्लफ्रेंड होने के लिए किसी काबिलियत की जरूरत नहीं।
हां, तो हम बात कर रहे थे माइकल की। तो माइकल मर्दों को ये बात कैसे समझाएं कि घर के कामों में उनका बराबर का साझा होना चाहिए कि अपनी क्षमता से ज्यादा काम करने के कारण औरतें बीमार पड़ रही हैं। वो शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो रही हैं।
वो कहते हैं कि औरतों के बीमार होने, डिप्रेस्ड होने, थकने, परेशान होने से पुरुषों को बहुत फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तब तक फर्क नहीं पड़ेगा जब तक इस गैरबराबरी की कुछ कीमत उन्हें भी न चुकानी पड़े।
तो माइकल कहते हैं कि जब मर्द घर के कामों में औरतों का हाथ बंटाते हैं तो औरतों की सेक्सुअल डिजायर और सेक्स ड्राइव बढ़ जाती है। पुरुषों के कान खड़े हो जाते हैं। अरे, ऐसा क्या। क्या इसलिए वो हर वक्त मैं थकी हूं, मेरा मन नहीं है, मेरा मूड नहीं है के बहाने बनाती रहती है।
फिर माइकल हंसकर कहते हैं कि ये सिर्फ एक दिन बर्तन धोने से नहीं होगा। एक महीने तक लगातार रोज बर्तन धोकर, पोंछकर, किचन साफ करके देखिए। आपको पत्नी से मिन्नतें नहीं करनी पड़ेगी। वो खुद पहल करेगी.
किसी को ये बात मजाक भी लग सकती है, लेकिन है नहीं। ऑस्ट्रेलिया की स्विनबर्न यूनिवर्सिटी की नई रिसर्च ये कह रही है कि घरेलू कामों में औरत और मर्द के बीच गैरबराबरी औरतों की सेक्सुअल डिजायर को खत्म कर रही है। यह इस तरह की पहली स्टडी नहीं है।
2015 में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी ने भी 25 से 45 साल के बीच की तकरीबन 25 हजार महिलाओं पर एक स्टडी की, जिसका निष्कर्ष यही था कि घरेलू श्रम की गैरबराबरी स्त्रियों की सेक्सुअल डिजायर को खत्म कर रही है।
बस उसी स्टडी को कोट करके माइकल पुरुषों को आगाह करते हैं कि प्यार के लिए न सही, न्याय के लिए न सही, बराबरी के लिए भी न सही, लेकिन कम से कम सेक्स के लिए तो घर के कामों में हाथ बंटा लो। इसमें तुम्हारा ही फायदा है।
ये पढ़कर हंसी भी आ सकती है, लेकिन कई बार बहुत सी जरूरी और गंभीर बातें सबसे हल्के-फुल्के और अगंभीर तरीके से ही समझाई जा सकती हैं। इस दुख पर दुखी होकर भी हमने क्या ही कर लिया। मर्दों का दिल हमारे दुख से तो नहीं पिघला। क्या पता, अपने ही दुख से पिघल जाए।