दिल्ली में अफगानियों की मोदी से गुहार:हमारे घरवालों ने तालिबान के खिलाफ अफगान सेना का साथ दिया, अब वे उन्हें चुन-चुनकर मार देंगे, मोदी जी हमें बचा लीजिए
शुक्रवार को सुबह जब हम यहां पहुंचे तो थोड़ी चहल-पहल दिखी। अफगानिस्तान दूतावास के बाहर लोगों का आना-जाना लगा था। कुर्ता पजामा पहने पुरुष और हिजाब पहने लड़कियां-औरतें, रोते बिलखते अपनी फरियाद लेकर यहां पहुंची थीं। उनके चेहरे पर तालिबान का खौफ और चिंता की लकीरें साफ झलक रही थीं। भास्कर ने इन्हीं में से कुछ लोगों से बात की और उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश की। आप भी पढ़िए उस बातचीत के प्रमुख अंश…
हर जगह गुहार लगा चुकी हूं, कहीं सुनवाई नहीं हो रही
अफगानिस्तान की फरिश्ता रहमानी अपनी बहन के साथ एक साल से भारत में रह रही हैं। वे भारत में बतौर शरणार्थी रहती हैं। उनकी मां अफगानिस्तान की सेना में थीं, जिसके चलते पिछले साल तालिबान ने उनके पिता की हत्या कर दी। उसके बाद से उनकी मां डिप्रेशन में हैं। अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने के बाद उन्हें भारत आना पड़ा, लेकिन भारत में भी उनकी जिंदगी मुश्किल से ही गुजर रही है।
फरिश्ता अपने दर्द की दास्तान सुनाते वक्त रो पड़ती हैं, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है कि संकट के इस वक्त में वे क्या करें? UN ह्यूमन राइट्स कमीशन से लेकर अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया सहित कई दूतावासों पर जाकर गुजारिश कर चुकी हैं, ईमेल भेज चुकी हैं, लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। जब हमने उनसे पूछा कि वे अमेरिका और भारत से क्या उम्मीद रखती हैं?
वे कहती हैं कि मेरी बाइडेन और मोदी जी से दरख्वास्त है कि हमारी जिंदगी की कद्र करें। हम जीना चाहते हैं। तालिबान बहुत ही दहशतगर्द है, जिन लोगों ने भी US आर्मी के साथ काम किया था, वे उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर मार देंगे। इसलिए वहां से लोग प्लेन पर लटक-लटक कर भाग रहे हैं और अपनी जान गंवा रहे हैं। खौफ का माहौल इतना है कि लड़कियां घर से बाहर नहीं निकल पा रही हैं। 20 साल पहले जब अमेरिका आया था तो अफगानिस्तान में सुरक्षा बढ़ी थी। अशरफ गनी ने हमारे मुल्क को पाकिस्तान को बेच दिया, पाकिस्तान आतंकी मुल्क है, हमें बचा लीजिए।
दिल्ली में रह रहीं फरिश्ता को यहां भी कई दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। जिस घर में रह रही हैं उसका किराया चुकाने तक के पैसे नहीं हैं। वे जहां भी नौकरी की तलाश में जाती हैं, वहां लोग उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं। वे चाहती हैं कि उन्हें UN की तरफ से यूनाइटेड नेशंस हाईकमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज (UNHCR) कार्ड मिले ताकि भारत में उन्हें रिफ्यूजी का दर्जा मिल सके।
तालिबान के शासन में काम करना मुश्किल है, वह बदलने वाला नहीं है
साढ़े छह फुट का कद, घुंघराले बाल, लंबे चौड़े शरीर वाले शाहिद अफगानिस्तान के काबुल के रहने वाले हैं। वे अफगानिस्तान सरकार में ही मुलाजिम हैं। मेडिकल वीजा पर 1 जुलाई को भारत आए थे, वीजा सिर्फ 30 दिन के लिए ही था। शाहिद का दर्द ये है कि वीजा के दिन खत्म हो गए हैं। वे वापस अपने मुल्क नहीं जा पा रहे हैं और दूसरी तरफ अफगानिस्तान में उन्हें अपने घर वालों की चिंता सता रही है। अब तालिबान के शासन में क्या होगा? कैसे होगा? उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है।
हमें अफगानिस्तान वापस जाना है, परिवार वालों की चिंता सता रही है। यहां पर दूतावास में लोग बता रहे हैं कि आपको अभी जाने नहीं दिया जा सकता है। कोई फ्लाइट भी ऑपरेट नहीं हो रही है। अफगानिस्तान में देश के नाम पर कुछ नहीं बचा है। 20 साल से जो आतंकी माने जाते थे, अब ये सरकार चलाएंगे, तो ऐसे देश में हमारे लिए काम करना ही संभव नहीं है। तालिबान की सरकार को हम देख चुके हैं कि इनका रवैया क्या रहा है? अब फिर से वही हाल होने वाला है। कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी ही रहेगी।
शाहिद कहते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन आरोप लगा रहे हैं कि अफगानिस्तान की फौज नहीं लड़ रही है, लेकिन ये भी सोचिए कि अगर अशरफ गनी लड़ाई करने लगते तो कितने लोगों की मौत होती? शाहिद नाराजगी भरे लहजे में कहते हैं कि अमेरिका के 6 हजार सैनिक एयरपोर्ट पर जमे हुए हैं। अगर वे चाहें तो काबुल वापस ले सकते हैं, लेकिन अमेरिका की मंशा ही नहीं है। इससे ज्यादा दर्दनाक क्या होगा कि जब हमारे परिवार पर सबसे बड़ा संकट आया है और हमसे उनसे दूर हैं।
घर छोड़ने के लिए दबाव बना रहा है मकान मालिक
अफगानिस्तान की रहने वाली नजमा (बदला हुआ नाम) तीन साल पहले हालात बिगड़ने और तालिबान के खौफ की वजह से भारत आ गई थीं, लेकिन उनके रिश्तेदार अभी भी अफगानिस्तान में फंसे हुए हैं। जब से अफगानिस्तान में हालात बिगड़े हैं, उन्हें भारत में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
हरे-पीले ऑटो में सवार होकर नजमा एक दूतावास से दूसरे दूतावास का चक्कर इस उम्मीद में काट रही हैं कि उनकी कहीं सुनवाई होगी, लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं मिल रहा है। नजमा अपनी पहचान जगजाहिर नहीं करना चाहतीं। उन्हें डर है कि कहीं तालिबान अफगानिस्तान में रह रहे उनके रिश्तेदारों को चुन-चुनकर ना मार दे।
नजमा बताती हैं कि उनके आस-पड़ोस में रहने वाले लोगों का उनके प्रति रवैया अचानक बदल गया है। अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने के बाद से नजमा के मकान मालिक ने उनकी पानी की सप्लाई काट दी है और घर छोड़ने के लिए दबाव बना रहा है।
मेरी एक बहन ऑस्ट्रेलिया में रहती है, मैं भी वहीं जाना चाहती हूं, लेकिन हमें किसी भी विभाग से जवाब नहीं मिल रहा है। कोई पोर्टल भी नहीं है, जिस पर जाकर हम सवाल-जवाब कर सकें। मेरा UNHRC में इंटरव्यू होना था, इसके लिए उन्होंने 2 साल का वक्त दिया, लेकिन इसके बावजूद अब तक कुछ नहीं हो पाया है। मेरा कुसूर सिर्फ इतना है कि मैं अफगानिस्तान में पैदा हुई, इसलिए हमें इतनी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
बहन अफगानिस्तान में अकेली फंसी है, प्लीज उसे कोई बचा ले
अफगानिस्तान मूल के मसीह भारत में शरणार्थी बनकर रह रहे हैं। मसीह ईसाई धर्म के हैं और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक होने की वजह से उन्हें कई साल तकलीफों का सामना करना पड़ा। 3 साल पहले उनके परिवार ने भारत में बसने का फैसला किया। मसीह अपने छोटे भाई के साथ अफगानिस्तान दूतावास के बाहर पहुंचे हैं। अपनी 18 साल की छोटी बहन को लेकर बहुत ज्यादा फिक्रमंद हैं। बहन अफगानिस्तान में अकेले फंसी हुई है और तालिबान की दहशत में दुबककर इस इंतजार में है कि कोई आएगा और उन्हें भारत लेकर जाएगा।
मसीह की भारतीय विदेश मंत्रालय और अफगानिस्तान के दूतावास से दरख्वास्त है कि काबुल में अकेले रह रही उनकी छोटी बहन को किसी भी तरह से रेस्क्यू किया जाए और उसकी जान बचाई जाए। मसीह बताते हैं कि उनका धर्म अलग है, इसलिए उन्हें ज्यादा डर लग रहा है। वे कैमरे पर बात करने से कतराते हैं, उनको डर है कि उनकी पहचान जाहिर हुई तो उनकी बहन को तालिबानी निशाना बना सकते हैं।