नई दिल्ली। खेती से जुड़े तीन कानूनों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन शांत नहीं हो रहा है। आंदोलन के बीच ही सरकार से बात भी चल रही है, जो अब तक बेनतीजा ही रही है। मांगों को लेकर 8 दिसंबर को किसानों ने भारत बंद बुलाया है। किसान इन तीनों ही कानूनों को रद्द करने की मांग पर अड़े हैं। उनकी सबसे बड़ी चिंता MSP यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस को लेकर है। उन्हें डर है कि कानून से MSP खत्म हो सकती है। हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी से लेकर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर तक बोल चुके हैं कि MSP खत्म नहीं होने वाली।
अब जब MSP पर इतना बवाल मच ही रहा है, तो MSP का सच भी जान ही लेते हैं। इसका सबसे बड़ा सच तो ये है कि MSP पर जिस समय इतना हल्ला मच रहा है, उस समय MSP तय करने वाले आयोग में दो पद खाली पड़े हैं। दोनों ही किसानों के लिए रिजर्व हैं।
MSP तय करने वाले आयोग में 5 पद हैं
किसी फसल पर कितनी MSP होगी, उसको तय करने का काम कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइसेस (CACP) करता है। सरकार CACP की सिफारिश पर ही MSP तय करती है। अगर किसी फसल की बम्पर पैदावार हुई है, तो उसकी कीमतें गिर जाती हैं, तब MSP किसानों के लिए फिक्स एश्योर्ड प्राइस का काम करती है। एक तरह से ये कीमतों के गिरने पर किसानों को बचाने वाली बीमा पॉलिसी की तरह है।
MSP की सिफारिश करने वाले CACP में 5 सदस्य होते हैं। इनमें एक चेयरमैन, मेंबर सेक्रेटरी और एक अन्य सरकारी सदस्य के अलावा दो सदस्य ऐसे होते हैं, जो सीधे खेती से जुड़े हों। पर काफी लंबे वक्त से CACP के ये दोनों पद खाली पड़े हैं। इसका मतलब हुआ कि फसल के दाम की सिफारिश करने वाले आयोग में किसान ही नहीं हैं। दोनों पदों पर नियुक्ति के लिए नवंबर में ही राज्य सरकारों को आयोग ने पत्र लिखा है।
81% किसानों को ही MSP की जानकारी, लेकिन फायदा सिर्फ 6% लेते हैं
2016 में नीति आयोग की एक रिपोर्ट आई थी। ये रिपोर्ट MSP का किसानों पर प्रभाव पर थी। ये रिपोर्ट 11 राज्यों के किसानों पर सर्वे कर तैयार की गई थी। इसके मुताबिक, देश के 81% किसानों को MSP के बारे में जानकारी थी। इनमें 4 राज्य आंध्र प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के 100% किसानों को MSP को लेकर जानकारी थी। हालांकि, यहां एक बात ये भी है कि 10% किसान ही ऐसे थे, जिन्हें फसल बोने से पहले ही MSP के बारे में पता होता था। जबकि 62% किसानों को फसल बोने के बाद इसके बारे में पता चलता था। इसका एक मतलब ये भी है कि किसान अपनी फसल MSP पर बेचने के लिए नहीं बोता।
नीति आयोग की रिपोर्ट से पहले जनवरी 2015 में शांता कुमार कमेटी की भी रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट में NSSO की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया था कि जुलाई 2012 से जून 2013 के बीच 9 करोड़ किसान परिवारों में से सिर्फ 6% ने ही अपनी फसल MSP पर बेची। यानी 94% किसानों ने अपनी फसल मार्केट या बिचौलियों को बेच दी या फिर अपने पास रख ली।
सबसे ज्यादा गेहूं-चावल पंजाब-हरियाणा से ही खरीदती है सरकार
सरकार ने 23 फसलों पर MSP तय कर रखी है। हालांकि, उनमें से सिर्फ दो गेहूं और चावल ही सरकार MSP पर खरीदती है। हालांकि, एक फैक्ट ये भी है कि हर साल गेहूं और चावल की जितनी पैदावार हमारे देश में होती है, उसका आधा भी सरकार MSP पर नहीं खरीदती।
2019 में देश में 1,179 लाख टन धान की पैदावार हुई, जिसमें से सरकार ने 510 लाख टन, यानी 43% की खरीदी की। इसी तरह पिछले साल 1072 लाख टन गेहूं पैदा हुआ था, जिसमें से 390 लाख टन यानी 36% ही सरकार ने खरीदा।
पिछले साल सरकार ने जितना गेहूं MSP पर खरीदा, उसमें से भी 99% से ज्यादा सिर्फ 5 राज्यों से ही लिया। इसमें पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से खरीदा। इन्हीं 5 राज्यों से सरकार ने 40% से ज्यादा चावल भी खरीदा था।