अगर अमेरिका नहीं रोकता तो 4 साल पहले ही बन चुकी होती कोराना वायरस की वैक्‍सीन

अमेरिका के बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन का दावा है कि उन्‍होंने 2016 में ही कोरोना वायरस (Coronavirus) की वैक्‍सीन बना ली थी. उसके क्‍लीनिकल ट्रायल्‍स भी पूरे हो गए थे, लेकिन अमेरिका (US) के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) ने उनसे काम बंद करने को कह दिया.

0 999,093

कोरोना वायरस (Coronavirus) पूरी दुनिया में फैलकर अब तक 19,23,769 लोगों को संक्रमित कर चुका है. इनमें 1,19,598 लोगों की मौत (Killed) हो चुकी है. ऐसे में दुनिया का हर व्‍यक्ति जानना चाहता है कि इसकी वैक्‍सीन (Vaccine) या दवाई कब तक तैयार हो जाएगी. वर्ल्‍ड हेल्‍थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) से लेकर दुनियाभर के वैज्ञानिक अभी तक यह साफ तौर पर बताने को तैयार नहीं हैं कि इसका कारगर इलाज या वैक्‍सीन कब तक बनकर तैयार होगी. ज्‍यादातर देशों के वैज्ञानिक और शोधकर्ता दावा तो कर रहे हैं कि उन्‍होंने इलाज खोज लिया है, लेकिन साथ ही उसके अभी संक्रमित मरीजों पर इस्‍तेमाल नहीं करने की सलाह भी दे रहे हैं. उनका कहना है कि इसके सही नतीजों के लिए उन्‍हें ज्‍यादा क्‍लीनिक ट्रायल्‍स (Clinical Trials) करने होंगे.

वैज्ञानिकों से कहा, हमें कोई दिलचस्‍पी नहीं
इस सब के बीच अमेरिका (America) के ह्यूस्‍टन में बेलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन (Baylor College of Medicine) के नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन का दावा है कि उन्‍होंने 2016 में यानी अब से 4 साल पहले ही कोरोना वायरस की वैक्‍सीन बना ली थी. यहां तक कि उसके क्‍लीनिकल ट्रायल्‍स भी पूरे हो गए थे, लेकिन अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) ने वैज्ञानिकों की इस टीम को काम रोकने के लिए कह दिया. जब टीम ने उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो एनआईएच ने कहा कि फिलहाल हमें इसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं है. साफ है कि अगर अमेरिका ने 4 साल पहले दिलचस्‍पी दिखाई होती तो आज दुनिया में ना तो लाखों लोग संक्रमित होते और न ही अब तक एक लाख से ज्‍यादा लोगों की मौत होती. अब सवाल ये उठता है कि ऐसे खतररनाक वायरस के खिलाफ अमेरिका ने दिलचस्‍पी क्‍यों नहीं दिखाई? इसका जवाब जानने के लिए हमें करीब दो दशक पहले के घटनाक्रम पर नजर डालनी होगी.

कई वैज्ञानिकों ने बीच में ही बंद किए शोध
चीन के ग्वांझो में एक अनजान वायरस से 2002 में एक महामारी फैली. वैज्ञानिकों ने इसे सीवियर एक्यूट रेसपिरेटरी सिंड्रोम (SARS) नाम दिया. इस वायरस से संक्रमित व्‍यक्ति को सांस लेने में मुश्किल पेश आने लगती थी. वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि सार्स बीमारी कोरोना वायरस की वजह से होती है. साथ ही वैज्ञानिकों ने बताया कि सार्स जानवरों से शुरू होकर इंसानों तक पहुंचा. तब सार्स कुछ ही महीनों में 29 देशों में फैल गया. इससे 8000 से ज्‍यादा लोग संक्रमित हुए और 800 से ज्‍यादा लोगों की मौत हुई. जब सार्स ने दुनिया के 29 देशों में प्रकोप फैलाया, तब भी लोग जानना चाहते थे कि इसकी वैक्‍सीन कब तक तैयार होगी. उस समय यूरोप, अमेरिका और एशिया के कई वैज्ञानिकों ने इसकी वैक्‍सीन बनाने का काम शुरू कर दिया था. उनमें से कुछ वैज्ञानिक वैक्‍सीन बनाने में सफल हो गए थे और क्‍लीनिकल ट्रायल के लिए तैयार थे. इसी बीच सार्स पर काबू पा लिया गया और पूरी दुनिया में इस पर चल रहे शोध बंद कर दिए गए.

 

नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन की डॉ. मारिया एलेना बोट्टाजी की टीम की बनाईवैक्‍सीन सार्स के लिए थी, जो कोरोना वायरस परिवार का सदस्‍य है.

सार्स-मर्स परिवार का ही सदस्‍य है कोविड-19
सार्स के एक दशक बाद 2012 में फिर इसी परिवार के एक और वायरस ने लोगों को संक्रमित करना शुरू कर दिया. वैज्ञानिकों ने इसे मिडल ईस्ट रेसिपेरिटरी सिंड्रोम (MERS) नाम दिया. मर्स ऊंटों से इंसानों तक पहुंचा था. तब भी कई वैज्ञानिकों ने इस वायरस से मुकाबले के लिए वैक्‍सीन बनाने पर जोर दिया. हालांकि, दुनिया भर की सरकारों ने वैज्ञानिकों की बात को तव्‍वजो नहीं दी और कोरोना वायरस की वैक्‍सीन बनाने के काम पर लॉक लगा रहा. अब मर्स के 8 साल और सार्स के 18 साल बाद उसी परिवार के SARS-Cov-2 ने तकरीबन 20 लाख लोगों को संक्रमित कर दिया है. इस बार फिर दुनिया भर से लोग पूछ रहे हैं कि इसकी वैक्‍सीन आखिर कब तक तैयार होगी.

वैज्ञानिकों को शोध के लिए नहीं दिए गए पैसे
दुनिया भर के शासकों की अनदेखी के बाद भी अमेरिका के ह्यूस्‍टन में वैज्ञानिकों के एक दल ने के कोरोना वायरस से मुकाबले के लिए वैक्‍सीन को तैयार कररने का काम जारी रखा. उन्‍होंने 2016 में वैक्‍सीन बनाने में सफलता हासिल कर ली. बेयलर कॉलेज ऑफ मेडिसीन के नेशनल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन की सह-निदेशक डॉः मारिया एलीना बोट्टाजी ने बताया कि हमने कोरोना वायरस की वैक्‍सीन के ट्रायल्स भी पूरे कर लिए थे. हमने वैक्सीन के शुरुआती प्रोडक्‍शन ट्रायल्‍स भी खत्‍म कर लिए थे. फिर हमने अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट आफॅ हेल्थ (NIH) से पूछा कि हम इस वैक्सीन को क्लीनिक तक जल्द पहुंचाने के लिए क्या कर सकते हैं? इस पर हमें जवाब मिला कि फिलहाल हमें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं’ है. ये वैक्‍सीन सार्स महामारी के खिलाफ तैयार किया गया था. चीन में इसकी शुरुआत हुई थी और वहां महामारी पर काबू पा लिया गया था. इसलिए इस वैक्सीन पर रिसर्च कर रहे वैज्ञानिक और पैसा जुटाने की स्थिति में नहीं रह गए थे.

अमेरिका के नेशनल इंस्‍टीट्यूट ऑफ हेल्‍थ ने डॉ् मारिया की टीम की बनाई वैक्‍सीन को अपडेट कराना शुरू कर दिया है.

डॉ. मारिया की वैक्‍सीन की जा रही अपडेट
अमेरिका ही नहीं दुनिया के कई वैज्ञानिकों को कोरोना वायरस के खिलाफ अपने शोध सिर्फ इसलिए बंद करने पड़ गए थे क्‍योंकि उनमें लोगों की दिलचस्पी कम हो गई थी. वहीं, वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को आगे के शोध करने के लिए पैसे जुटाने भी मुश्किल हो गए थे. यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिलवेनिया में माइक्रोबॉयलॉजी की प्रोफेसर सुजैन वीज कहती हैं कि जब सार्स महामारी खत्म हो गई तो लोगों, सरकारों और दवा कंपनियों की कोरोना वायरस के अध्‍ययन में दिलचस्पी भी नहीं रह गई. वहीं, सार्स का असर एशिया में ज्‍यादा हुआ. ये यूरोप तक नहीं पहुंच पाया. इसके बाद आए मर्स का असर भी मिडिल ईस्‍ट तक ही हुआ. इसलिए पश्चिमी देशों की कोरोना वायरस में दिलचस्‍पी कम ही रही. साथ ही जिन क्षेत्रों में इसका असर हुआ, उनमें भी महामारी काबू में कर लिए जाने के कारण आगे के शोध बंद करने पड़े. फिलहाल डॉ. मारिया की टीम अपनी वैक्सीन को कोविड-19 के लिहाज से अपडेट करने पर काम कर रही है. एनआईएच उन्‍हें अभी भी पूरा पैसा नहीं दे रहा है.

अपडेट करने के लिए भी नहीं दिए पूरे पैसे
नया वायरस SARS-Cov-2 उसी कोरोना परिवार का सदस्‍य है, जिसने 2002 में सार्स महामारी फैलाई थी. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, डॉ. मारिया कहती हैं कि दोनों ही वायरस अनुवांशिक रूप से 80 फीसदी एक जैसे हैं. उनकी वैक्सीन की मंजूरी की शुरुआती प्रक्रिया पूरी हो गई थी. ऐसे में नए कोरोना वायरस के खिलाफ उसे जल्दी ढाला जा सकता था. हमारे पास इसके उदाहरण होते कि ऐसे वैक्सीन कैसा बर्ताव करती हैं. हमारे पास अनुभव होता कि समस्या की जड़ कहां है और उसका समाधान कैसे किया जाना है. हमने पहले ये देखा था कि क्‍लीनिकल ट्रायल की शुरुआत में सार्स वैक्सीन कैसे प्रतिक्रिया कर रही थी. हमें उम्मीद है कि नई वैक्सीन भी तकरीबन उसी तरह काम करती. हमें नहीं रोका जाता तो 15 लाख डॉलर में हम इंसानों पर अपनी वैक्सीन के असर की क्‍लीनिकल स्टडी पूरी कर लेते. लेकिन, उन्होंने हमारा काम बंद कर दिया. अब अपडेट के लिए भी हमें 15 लाख डॉलर के बजाय 4 लाख डॉलर ही दिए गए हैं.

Leave A Reply

Your email address will not be published.