कैसे गांधी परिवार के सबसे खास और विश्वासपात्र बन गए थे अहमद पटेल

1977 के चुनावों में जब आपातकाल (emergency) के बाद चुनावों में कांग्रेस (Congress) के पैर उखड़ गए थे, तब अहमद पटेल (Ahemad Patel) गुजरात के भरूच से चुनाव जीतकर युवा चेहरे के तौर पर लोकसभा पहुंचे थे. उसके बाद वो इंदिरा गांधी के करीब आए और फिर राजीव के. इसके बाद सोनिया के सबसे विश्वासपात्र बन गए.

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नई दिल्ली। वर्ष 1977 में आपातकाल खत्म करने की घोषणा के साथ ही जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चुनावों की घोषणा की तो उन्होंने गुजरात से एक युवा चेहरे को भरूच से चुनाव के लिए खड़ा किया. वो युवक यूथ कांग्रेस में अपनी जबरदस्त संगठन क्षमता के कारण इंदिरा की निगाह में आया था. 77 के उस चुनाव में जब जनता पार्टी की लहर में पूरे देश में कांग्रेस के पैर उखड़ गए थे, तब ये युवक भरूच से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचा.

वो कोई और नहीं बल्कि अहमद पटेल थे. जो इसके बाद गांधी परिवार के खास होते चले गए. पिछले कुछ बरसों में उन्हें सोनिया गांधी का सबसे विश्वस्त सहयोगी और कांग्रेस का थिंक टैंक माना जाने लगा था. वर्ष 2017 में जब गुजरात में राज्यसभा चुनाव में बीजेपी ने सारी ताकत झोंक दी थी, उसके बावजूद जिस तरह पटेल वहां से जीते, उससे उनकी रणनीति की धाक जम गई.

उस चुनाव में अहमद पटेल को सीधे तौर पर सोनिया गांधी की हार और जीत से जोड़कर देखा जा रहा था. जो ये दिखाता है कि सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे अहमद पटेल की गांधी परिवार में क्या अहमियत थी.

गांधी परिवार के साथ अहमद पटेल का जुड़ाव करीब 04 दशकों का रहा.

अहमद पटेल तीन बार लोकसभा में कांग्रेस के सांसद रहे. पांच बार कांग्रेस की तरफ़ से राज्यसभा सांसद रह चुके थे. कांग्रेस में अघोषित तौर पर उन्हें गांधियों के बाद नंबर दो माना जाता था. हालांकि पटेल की शैली हमेशा लोप्रोफाइल रहने की रही. कांग्रेस के गांधी परिवार में सबसे विश्वासपात्र बनने की उनकी स्थिति गुजरते बरसों के साथ मजबूत होती चली गई.

पिछले दो दशकों में जबकि तमाम कांग्रेस के दिग्गज नेताओं की स्थिति गांधी परिवार में ऊपर और नीचे हुई, वहीं पटेल मजबूती से अपनी जगह जमे रहे और गांधी परिवार के करीब रहे.

तब इंदिरा के करीब आए फिर राजीव के
अहमद पटेल ने जब आपातकाल के बाद विपक्ष की लहर में लोकसभा का चुनाव जीता तो वो इंदिरा के और करीब आ गए. हालांकि इंदिरा की नजर उन पर पहले से थी. लेकिन कांग्रेस की पहली पंक्ति में वह 1980 और 1984 के बीच आए, जब राजीव गांधी को उनकी मां अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार करने लगी थीं. तब पटेल को राजीव गांधी के साथ रखा गया और वो उनके करीबी होते गए.

अहमद पटेल पहले इंदिरा के करीब आए. फिर राजीव गांधी के, इसके बाद वो सोनिया के सबसे बड़े विश्वासपात्र बनकर उभरे

राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया
राजीव जल्दी ही उन्हें पसंद करने लगे. उन पर खासा विश्वास करने लगे. गुजरात के तमाम मामलों में वो सबसे बड़े सलाहकार बन गए. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी 1984 में लोकसभा की 400 सीटों के बहुमत के साथ सत्ता में आए थे. तब अहमद पटेल कांग्रेस सांसद होने के अलावा पार्टी की संयुक्त सचिव बनाए गए, फिर संसदीय सचिव और फिर कांग्रेस का महासचिव भी.

पीवी नरसिम्हाराव ने किनारे कर दिया था
हालांकि राजीव गांधी की मृत्यु के बाद जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पटेल को गांधी परिवार का करीबी होने के बाद भी किनारे कर दिया. तब कांग्रेस वर्किंग कमेटी की सदस्यता के अलावा अहमद पटेल को सभी पदों से हटा दिया गया.

हालांकि उसके कुछ समय बाद राव ने पटेल को मंत्री पद देने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने उसे ठुकरा दिया.वैसे ये साफ था कि गांधी परिवार का खास होने के कारण ना तो नरसिम्हाराव उन्हें पसंद करते थे और ना पटेल उन्हें. पटेल बहुत धार्मिक थे. कहा जाता है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस में नरसिम्हा राव की भूमिका को उन्होंने कभी माफ़ी नहीं किया.

गांधी परिवार के थिंकटैंक बनते गए
नरसिम्हाराव के दौर में ही उन्होंने गांधी परिवार से संपर्क लगातार बनाए रखा. सोनिया उन पर सबसे ज्यादा विश्वास करती थीं. राहुल गांधी भी उनसे सलाह लेते थे. कहा जाता है कि कांग्रेस में पर्दे के पीछे की तमाम गतिविधियों में वो थिंकटैंक का काम करते थे.

उनकी सलाह मानी जाती थी. अगर आप तस्वीरें देखें तो वो ज्यादातर सोनिया गांधी के आसपास दिखेंगे. धीमी आवाज में कम बोलते थे लेकिन अहम फैसले लेते थे. सियासी सर्किल में वो अहमद भाई के नाम से बखूबी जाने जाते थे.

सामान्य कद काठी के कम बोलने वाले शख्स
अगर पटेल के व्यक्तित्व को देखें तो वो सामान्य कद काठी और साधारण तरीके से रहने वाले सामान्य व्यक्ति थे, जो प्रेस के सामने आने से बचते थे, नेताओं की भीड़ से बचते थे. उनके भाषण मामूली होते थे, कहना चाहिए कि वो कभी भीड़ को खींचने वाले करिश्माई नेता नहीं रहे. अपने परिवार को भी उन्होंने सियासत से दूर ही रखा. लेकिन उनकी यादाश्त बहुत तेज थी.

वह मेहनती नेता थे. देर तक काम करते थे. कांग्रेस के फंड को देखते थे. बहुत प्लानिंग के साथ काम करते थे. उनके पास लगातार 10, जनपथ यानि सोनिया के आवास से फोन आते थे.

 

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