कोविड 19 के खात्मे की राह में क्यों रोड़ा बन रहा है ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’?
वैश्विक महामारी का मतलब ही यही है कि पूरी दुनिया इसकी चपेट में है और दुनिया को दुनिया के लिए मिलकर इसके खिलाफ लड़ने की ज़रूरत है. कोरोना वायरस (Corona Virus) से चल रही जंग में दुनिया के लिए कोई उम्मीद है तो बस वैक्सीन. लेकिन, इस ब्रह्मास्त्र को लेकर ही दुनिया में लड़ाई शुरू हो जाए तो जंग कैसे जीती जाएगी?
नई दिल्ली। 1 करोड़ 80 लाख के आसपास कोरोना वायरस संक्रमण (Corona virus Transmission) के केसों और 6 लाख 85 हज़ार से ज़्यादा मौतों के आंकड़े के बाद पूरी दुनिया की ज़रूरत एंटी Covid-19 वैक्सीन ही है. हर कोने को वैश्विक महामारी (Pandemic) के दौर में मानवता के लिए एक वैक्सीन की उम्मीद है और इस उम्मीद के पूरे होने के बीच सबसे बड़े रोड़े के रूप में सामने आ रहा है वैक्सीन राष्ट्रवाद! जी हां, यह शब्द 2009 में H1N1 महामारी के समय शब्दकोष में जुड़ा था, लेकिन तब बड़ी किफायत से इस्तेमाल होता था.
क्या बला है वैक्सीन राष्ट्रवाद?
वैक्सीन निर्माता कंपनियों के साथ मिलकर उत्पादन से पहले ही वैक्सीन के डोज़ अपने देश के लोगों या नागरिकों के लिए सुरक्षित करने को वैक्सीन राष्ट्रवाद के दायरे में समझा जाता है. कुछ देश तो देश को वैक्सीन में प्राथमिकता देने के लिए निर्माताओं को अन्य देशों में वैक्सीन बेचने के लिए प्रतिबंधित भी करने लगे हैं. ऐसे में क़यामत उन देशों पर टूटना तय है, जो गरीब होने के कारण वैक्सीन बनाने और खरीदने में सक्षम नहीं होंगे.
आईसीएमआर में हाल में हुई एक कॉन्फ्रेंस में दुनिया के मशहूर वायरोलॉजिस्ट पीटर पायट ने कहा कि दुनिया में बहुत कम देश वैक्सीन उत्पादन की क्षमता रखते हैं. ऐसे में अगर कोई ये कहने लगे कि ये मेरे देश की वैक्सीन है इसलिए मेरे देश के लोगों के लिए ही है तो! जब तक एक देश में भी कोरोना संक्रमण बना रहेगा, तब तक पूरी दुनिया के सामने संक्रमण का खतरा बना रहेगा.
दुनिया भर में कई संभावित वैक्सीन ह्यूमन ट्रायल के दौर में हैं.
किस तरह का संकट है ये?
कोविड 19 पर रिस्पॉंस के लिए यूरोपियन कमीशन के अध्यक्ष के लिए खास सलाहकार पायट की मानें तो यह वैश्विक महामारी न केवल लोक स्वास्थ्य सिस्टम और विज्ञान के लिए ही चुनौती है, बल्कि इस समय में भौगोलिक राजनीति के लिए भी सबसे बड़ा संकट है. कोविड की चपेट में आए सहयोगी देशों के लिए वैक्सीन के विकास और वहां वितरण के लिए यूरोपियन कमीशन ने 10 अरब यूरो जुटाए हैं.
पायट के मुताबिक जो देश अपने नागरिकों के लिए पहले वैक्सीन हासिल कर लेंगे, उन्हें आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक तौर पर बड़े फायदे होंगे. इसलिए इस मुद्दे पर बातचीत किया जाना ज़रूरी है.
वैक्सीन बनी तो बराबरी से बंटेगी?
अव्वल तो दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था WHO तक पर ये इल्ज़ाम लगे कि उसने कोविड 19 को ठीक से हैंडल नहीं किया. तमाम शक्तिशाली देशों पर भी ये आरोप लगे. ऐसे में अगर कोई ये उम्मीद रखता है कि वैक्सीन बनेगी तो उसे मानवता के कल्याण के लिए इस्तेमाल किया जाएगा, यह बहुत आशावादी होना है. सच्चाई यह है कि कोविड वैक्सीन बनने पर उसे तेज़ी, ईमानदारी और बराबरी से उपलब्ध कराने के लिए एक तंत्र COVAX को अब तक 75 देशों की रज़ामंदी मिल चुकी है.
COVAX का मकसद है कि 2021 के आखिर तक वैक्सीन के सुरक्षित और असरदार दो अरब डोज़ डिलीवर किए जाएं. ये डोज़ आबादी के लिहाज़ से साथी देशों को बराबरी की भावना से बांटे जाने का लक्ष्य भी है. इसके बाद जो डोज़ होंगे, उन्हें देशों की ज़रूरत और वहां कोविड 19 के खतरे को देखते हुए बांंटे जाएंगे. COVAX तंत्र के तहत इमरजेंसी के हालात में मानवता के लिहाज़ से कुछ डोज़ बफर में रखे जाएंगे.
कुल मिलाकर बात यह है कि वैक्सीन राष्ट्रवाद के बेतहाशा हावी होने के चलते COVAX जैसे अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों की ज़रूरतें पेश आ रही हैं. सिर्फ यही नहीं, इस तरह की कई संस्थाएं कई स्तरों पर यह सुनिश्चित करने में लगी हैं कि वैक्सीन महाशक्तियों का व्यापार बनकर न रह जाए, बल्कि ज़रूरतमंद देशों तक पहुंच सके.