जहां कभी महिलाओं ने शुरू किया था चिपको आंदोलन वहीं आई त्रासदी, रैणी गांव पर बिगड़ते पर्यावरण की मार

उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव की महिलाओं ने चिपको आंदोलन चलाया था. लेकिन आज इसी रैणी गांव को पर्यावरण की मार झेलनी पड़ी. सत्तर के दशक में रैणी गांव में ही चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी.

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नई दिल्ली: उत्तराखंड के चमोली जिले में ये कुदरती आपदा उसी गांव के पास आई जहां की महिलाएं पर्यावरण को बचाने के लिए कुल्हाड़ियों के आगे डट गई थीं. रैणी गांव की महिलाओं ने ही चिपको आंदोलन चलाया था. लेकिन पर्यावरण बचाने के लिए लड़ने वाले रैणी गांव को आज बिगड़ते पर्यावरण की ही मार झेलनी पड़ी.

रैणी गांव ही वो जगह है जहां दुनिया का सबसे अनूठा पर्यावरण आंदोलन शुरू हुआ था. सत्तर के दशक में उत्तराखंड के रैणी गांव में ही चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी. पेड़ काटने के सरकारी आदेश के खिलाफ रैणी गांव की महिलाओं ने जबर्दस्त मोर्चा खोल दिया था. जब लकड़ी के ठेकेदार कुल्हाड़ियों के साथ रैणी गांव पहुंचे तो रैणी गांव की महिलाएं पेड़ों से चिपक गई थीं. महिलाओं के इस भारी विरोध की वजह से पेड़ों को काटने का फैसला स्थगित करना पड़ा.

महिलाओं के पेड़ से चिपकने की तस्वीर इस आंदोलन का सबसे बड़ा प्रतीक बन गई थी और दुनिया की नजरें रैणी गांव के इस अनूठे आंदोलन की तरफ आईं. रैणी गांव की ही एक अनपढ़ और बुजुर्ग महिला गौरा देवी ने उस अनूठे पर्यावरण आंदोलन की अगुआई की थी. लेकिन विडंबना है कि आज रैणी गांव ही हिमालय के पर्यावरण को हुए नुकसान की कीमत चुका रहा है.

ग्लेशियर टूटने के बाद आई इस आपदा में रैणी गांव के आसपास के न रास्ते सलामत रहे और न पुल बचे. यहां तक कि रैणी गांव में धौली गंगा और ऋषि गंगा के संगम पर बने 13 मेगावट की जलविद्युत परियोजना को भी भारी नुकसान पहुंचा. रैणी गांव भारत की चीन से लगती सीमा से ज्यादा दूर नहीं है. जोशीमठ से मलारी तक हाईवे जाता है जिसको नुकसान हुआ है. हाईवे पर बना मोटर पुल बह गया है जिसकी वजह से इस इलाके का संपर्क बाकी देश से कट गया है.

नई बिल्डिंग बनानी हो या फिर मेट्रो का पुल आज हर जगह विकास के कार्यों के लिए जिस चीज को सबसे ज्यादा बलि देनी पड़ रही है वह हैं पेड़. पेड़ जो हमारे जीवन तंत्र या यूं कहें पर्यावरण के सबसे अहम कारक हैं वह लगातार खत्म होते जा रहे हैं. आलम यह है कि आज हमें घनी आबादी के बीच कुछेक पेड़ ही देखने को मिलते हैं और इसकी वजह से पृथ्वी का परिवर्तन चक्र बुरी तरह प्रभावित हो रहा है.

धरती का फेफड़ा कहलाने वाले पेड़ों का हमारे जीवन में सर्वत्र महत्व है, लेकिन सबसे बड़ा लाभ इनके द्वारा प्राणवायु ऑक्सीजन का उत्सर्जन और वायुमंडल को दूषित करने वाली एवं ग्लोबल वार्मिंग की जिम्मेदार गैस कार्बनडाई आक्साइड का अवशोषण करना है. अगर पेड़ नहीं होंगे तो ऑक्सीजन की कमी से हमारी सांसें घुट जाएंगी.

 

पेड़ हमारे जीवन के लिए कितना उपयोगी है इसका सबसे बड़ा नमूना 26 मार्च, 1974 में उत्तराखण्ड के वनों में शांत और अहिंसक विरोध प्रदर्शन के रूप में देखा गया. इसे ‘चिपको आंदलोन’ का नाम दिया गया. इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य व्यावसाय के लिए हो रही वनों की कटाई को रोकना था और इसे रोकने के लिए महिलाएं वृक्षों से चिपककर खड़ी हो गई थीं. तस्वीरों में आप भी देख सकते हैं.

दरअसल गौरा देवी नामक महिला ने अन्य महिलाओं के साथ मिलकर उस नीलामी का विरोध किया जिसमें उत्तराखंड के रैंणी गाँव के जंगल के लगभग ढाई हजार पेड़ों को काटे जाने थे. स्थानीय नागरिकों के विरोध करने के बावजूद सरकार और ठेकेदारों के निर्णय में कोई बदलाव नहीं आया. ठेकेदारों ने अपने लोगों को जंगल के लगभग ढाई हजार पेड़ काटने के लिए भेज दिया. तभी गौरा देवी और उनके 21 साथियों ने उन लोगों को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने और पेड़ काटने की जिद पर अड़े रहे. यह देख वहां मौजूद महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर उन्हें ललकारा कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना. अंतत: पेड़ काटने आए लोगों को वहां से जाना पड़ा.

चिपको आंदोलन ने तब की केंद्र सरकार का ध्यान अपनी ओर खींचा था. जिसके बाद यह निर्णय लिया गया कि अगले 15 सालों तक उत्तर प्रदेश के हिमालय पर्वतमाला में एक भी पेड़ नहीं काटे जाएंगे. चिपको आंदोलन का प्रभाव उत्तराखंड (तब उत्त्त प्रदेश का हिस्सा था) से निकलकर पूरे देश पर होने लगा. इसी आंदोलन से प्रभावित होकर दक्षिण भारत में पेड़ों को बचाने के लिए एप्पिको नाम से आंदोलन शुरू किया गया.

क्या है चिपको आंदोलन के पीछे की कहानी

भारत में पहली बार 1927 में ‘वन अधिनियम’ को अधिनियमित किया गया था. इस अधिनियम के कई प्रावधान आदिवासी और जंगलों में रहने वाले लोगों के हितों के खिलाफ था. ऐसी ही नीतियों के खिलाफ 1930 में टिहरी में एक बड़ी रैली का आयोजन किया गया. भारत जब आजाद हुआ तब 1949 में टिहरी को उत्तर प्रदेश में मिलाकर एक नए जिले का नाम दिया गया जिसका नाम है टिहरी गढ़वाल.

अधिनियम के कई प्रावधानों के खिलाफ जो विरोध 1930 में शुरू हुआ था वह 1970 में एक बड़े आंदोलन के रूप में सबके सामने आया जिसका नाम चिपको आंदोलन रखा गया. यहां चिपको का मतलब है गले लगाना. 1970 से पहले  महात्मा गांधी के एक शिष्य सरला बेन ने 1961 में एक अभियान की शुरुआत की, इसके तहत उन्होंने लोगों को जागरुक करना शुरू किया. उस दौरान लोग छुआछूत तथा कन्याओं को न पढ़ाने की प्रवृति तथा दहेज प्रथा जैसी सामाजिक समस्याओं का विरोध कर रहे थे, साथ ही वो जंगलों को बचाने के संघर्ष में भी शामिल हो गए. 30 मई 1968 में बड़ी संख्या में आदिवासी पुरुष और महिलाएं चिपको आंदोलन से जुड़े. धीरे -धीरे यह आंदोलन आग की तरह पूरे उत्तराखंड़ में फैल गया.

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