नई दिल्ली। तालिबान ने भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। तालिबान प्रवक्ता शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई ने कहा है कि हम भारत के साथ ‘दोस्ताना संबंध’ चाहते हैं। इसके बाद तालिबान के आग्रह के बाद मंगलवार को दोहा में भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने तालिबान प्रतिनिधि स्टानिकजई से मुलाकात की।
इस मुलाकात के बाद माना जा रहा है कि भारत तालिबान के साथ संबंध बनाना चाहता है, लेकिन ये संबंध कैसे होंगे ये तालिबान के कदम पर निर्भर करता है। भारत ने स्टानिकजई के सामने जो मुद्दे उठाए हैं। उस पर तालिबान का रुख ही दोनों के रिश्तों को तय करेगा। वहीं, दूसरी तरफ भारत का अफगानिस्तान में करीब 23 हजार करोड़ रुपए का निवेश है। भारत ने पिछले 20 साल में अफगानिस्तान में विकास से जुड़े कई काम किए हैं। ऐसे में तालिबान के लिए भारत के साथ अच्छे संबंध रखना जरूरी है।
तालिबान से मुलाकात पर भारत का क्या कहना है? इस मुलाकात के क्या मायने हैं? भारत को तालिबान से खुलकर बात करने की जरूरत क्यों पड़ी? तालिबान पर भारत अब तक चुप क्यों था? ऐसे ही सवालों का जवाब जानने के लिए हमने JNU में सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज के प्रोफेसर सुधीर सुथार, विदेश मामलों के एक्सपर्ट रहीस सिंह और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस की प्रोफेसर डॉ. स्वास्ति राव से बात की। आइए जानते हैं इस पूरे मामले में इन तीनों का क्या कहना है…
तालिबान से मुलाकात पर भारत का क्या कहना है?
विदेश मंत्रालय की ओर से जारी प्रेस रिलीज में कहा गया कि तालिबान के आग्रह के बाद ये मुलाकात हुई है। बातचीत का फोकस अफगानिस्तान में फंसे भारतीयों की जल्द वापसी पर था। ऐसे अफगान नागरिक खासतौर पर अल्पसंख्यक जो भारत आना चाहते हैं उनके बारे में भी मुलाकात के दौरान बात हुई। भारतीय राजदूत ने कहा कि किसी भी तरह की भारत विरोधी गतिविधि और आतंकवाद के लिए अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। तालिबान के प्रतिनिधि ने भारत द्वारा उठाए गए मुद्दों पर सकारात्मक तौर पर विचार करने का आश्वासन दिया।
इस मुलाकात के क्या मायने हैं?
डॉक्टर स्वास्ति राव कहती हैं कि इसके पीछे दो बड़ी वजहें हैं। पहला तालिबान का बदला हुआ रुख। तालिबान लंबे समय से भारत से बेहतर संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है। यहां तक कि 2019 में तालिबान की ओर से कश्मीर को लेकर बयान आया था कि ये भारत का आंतरिक मामला है, वो इस मामले में पाकिस्तान का सपोर्ट नहीं करेगा।
सत्ता बदलने के बाद भी उसने लगातार भारत से बातचीत को लेकर सकारात्मक रवैया अपनाया है। वैसे भी तालिबान इस बार ज्यादा से ज्यादा देशों के साथ बेहतर संबंध बनाने की लगातार कोशिश कर रहा है। दूसरी बड़ी वजह अमेरिका का तालिबान को लेकर बदला रुख भी है। अमेरिका ने अफगानिस्तान से जाने से पहले ही भारत को विश्वास में लिए बिना 2019 में तालिबान से बातचीत शुरू की। उससे समझौते करके चला गया। दोहा में तालिबान से बातचीत करने वालों में पाकिस्तान, रूस, चीन से लेकर ईरान तक शामिल थे, लेकिन भारत को नहीं बुलाया गया। ऐसे में भारत अलग-थलग पड़ता नजर आया था। अफगानिस्तान में अपने निवेश और वहां से मध्य एशिया की पहुंच को बनाए रखने के लिए भारत को तालिबान से खुले तौर पर बातचीत का नया चैनल खोलना जरूरी था।
भारत ने बैकडोर डिप्लोमेसी की जगह खुलकर बातचीत का रास्ता क्यों चुना?
भारत अब तक अमेरिका के पूरी तरह से अफगानिस्तान छोड़ने का इंतजार कर रहा था। अमेरिकी सैनिकों ने 31 अगस्त को पूरी तरह से अफगानिस्तान छोड़ दिया। इसके बाद तय हो गया कि अब अफगानिस्तान का भविष्य पूरी तरह तालिबान के हाथ में है। ऐसे में भारत को नए अफगानिस्तान से नए सिरे से रिश्ते बनाने के लिए अपनी डिप्लोमेसी में बदलाव करना पड़ा।
भारत के लिए ये एक हाथ दे एक हाथ ले वाला रिश्ता है। तालिबान भारत से ट्रेड चाहता है। भारत चाहता है कि अफगानिस्तान की जमीन से भारत विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा नहीं मिले।
भारत अभी तक इस मामले पर चुप क्यों है?
तीनों एक्सपर्ट का मानना है कि भारत सरकार इस मामले में फिलहाल कुछ भी जल्दबाजी नहीं करना चाहती। यही वजह है कि भारत फिलहाल वेट एंड वॉच वाली स्थिति में है। ये भारत की सोची-समझी नीति है। भारत का स्ट्रैटजिक फायदा अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना संबंध रखने में ही है, लेकिन इस वक्त क्षेत्रीय समीकरणों को देखते हुए भारत के लिए अपने स्ट्रैटजिक संबंध बनाए रखना मुश्किल है।
साथ ही भारत इंतजार कर रहा है कि अफगानिस्तान में तालिबान किस तरह की सरकार बनाता है। उसके बाद ही भारत तालिबान पर खुलकर कुछ बोलने की स्थिति में होगा। इस वजह से भारत फिलहाल वेट एंड वॉच वाली पॉलिसी अपना रहा है।
तालिबान को लेकर UN के रुख में बदलाव क्यों आया है?
सुधीर सुथार के मुताबिक, अफगानिस्तान को लेकर ग्लोबल लेवल पर भी कन्फ्यूजन की स्थिति है। UN भी समझ नहीं पा रहा है कि इस मामले पर उसे किस तरह से हस्तक्षेप करना चाहिए। अफगानिस्तान से अमेरिका जा चुका है, NATO देश जा चुके हैं और आसपास के देश भी ज्यादा खुलकर नहीं बोल रहे हैं। ऐसी स्थिति में अफगानिस्तान को लेकर ग्लोबल लेवल पर एक कन्फ्यूजन बना हुआ है। UN के बयान को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
डॉ. स्वास्ति राव का मानना है कि तालिबान अब अफगानिस्तान की सत्ता में आ चुका है। धीरे-धीरे ही सही, लेकिन बाकी देशों को तालिबान सरकार को मान्यता देनी पड़ेगी। UN का ये बयान यही दर्शा रहा है।
अफगानिस्तान में भारत ने जो निवेश किए हैं, उनका क्या होगा?
रहीस सिंह के मुताबिक, भारत का अफगानिस्तान में निवेश किसी रिटर्न की मंशा से नहीं किया गया था। भारत ने अफगानिस्तान में बांध, सड़कें, स्कूल और हॉस्पिटल बनवाए हैं। तालिबान अगर समझदार होगा तो बांध क्यों तोड़ेगा? बांध तोड़ने से उसे बिजली और पानी का नुकसान होगा। इसी तरह भारत के बनाए किसी स्कूल और हॉस्पिटल को तोड़ने से तालिबान को केवल नुकसान ही उठाना पड़ेगा। ऐसा करने से तालिबान अंतरारष्ट्रीय स्तर पर जो छवि बनाने की कोशिश कर रहा है, उसे भी नुकसान पहुंचेगा। यही वजह है कि भारत के अफगानिस्तान में निवेश पर फिलहाल ज्यादा खतरा नहीं है।
डॉ. स्वास्ति राव के मुताबिक, तालिबान खुद ही बोल रहा है कि अफगानिस्तान के विकास में उसे दूसरे देशों के सहयोग की जरूरत है। तालिबान के इस बयान को देखते हुए भारत का निवेश सुरक्षित ही माना जा सकता है।
मौजूदा हालात में भारत के पास क्या रास्ते हैं?
- प्रोफेसर सुधीर सुथार कहते हैं कि हो सकता है भारत को एक दोस्ताना तालिबान से फायदे बहुत कम हो, लेकिन एक बिना संबंध वाले तालिबान से नुकसान ज्यादा है। भारत को फिलहाल ये कोशिश करना चाहिए कि भले ही पहले जितने दोस्ताना संबंध न हो पाएं, लेकिन संबंध ज्यादा खराब भी न हों। भारत की वेट एंड वॉच नीति का ही नतीजा है कि अफगानिस्तान भारत को लेकर दोस्ताना संबंध वाला बयान दे रहा है। भारत को इसी पॉलिसी को आगे बढ़ाना चाहिए।
- भारत ने अभी तक अफगानिस्तान में जो निवेश किया है और जो प्रोजेक्ट वहां चल रहे थे, भारत को इन निवेश का हवाला देना चाहिए कि भारत ने अफगानिस्तान की जनता के लिए इतने स्कूल-हॉस्पिटल बनवाएं हैं। अगर भारत के लोगों और निवेश को तालिबान सुरक्षा की गारंटी देता है तो भारत कुछ फैसले ले सकता है।
- 31 अगस्त को अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी हुई है। इसके बाद ही तालिबान अफगानिस्तान में सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू करेगा। भारत को इस पर नजर रखना चाहिए कि किस तरह से वहां सरकार बनती है, तालिबान किसे साथ रखकर सरकार बनाता है। तालिबान की सरकार बनाने की प्रक्रिया और बाकी गुटों से संबंध के आधार पर ही भारत को तालिबान पर आगे कुछ फैसला लेना चाहिए।
- डॉ. स्वास्ति राव के मुताबिक, अफगानिस्तान में ईरान, रूस, चीन और भारत के हित सीधे तौर पर जुड़े हैं। पाकिस्तान का वहां पहले से ही ज्यादा दखल है और तालिबान पर भी उसका असर है। भारत को ईरान और रूस की मदद से अपने रास्ते खुले रखने चाहिए। ईरान और रूस के दूतावास अभी भी वहां चल रहे हैं। ऐसे में ये देश भारत के लिए बड़े मददगार साबित हो सकते हैं
क्या तालिबान को भारत मान्यता देगा?
डॉ. स्वास्ति राव के मुताबिक, भारत तालिबान को मान्यता दे सकता है, लेकिन शर्त ये होगी कि तालिबान अपनी सरकार में सभी पक्षों को शामिल करे और एक समावेशी सरकार बनाए। ज्यादातर देशों ने तालिबान को मान्यता देने के लिए यही शर्त रखी है। अगर तालिबान समावेशी सरकार बनाता है, तब भारत उसे मान्यता दे सकता है।