नई दिल्ली। सात साल की रेशू कई बार घर से बाहर निकलने की जिद करती है, लेकिन उसके पेरेंट्स दरवाजा बंद ही रखते हैं। वो देर तक खिड़की से झांकती है। अपने पड़ोस में रहने वाली अंशिका से दरवाजे की जाली से बात करती है। रेशू और अंशिका अपने-अपने खिलौने दूर से ही एक दूसरे को दिखाते हैं और फिर बाहर साथ खेलने की जिद करते हैं, लेकिन दोनों के ही पेरेंट्स उन्हें बाहर नहीं निकलने देते। इससे नोएडा में रहने वाली दोनों बच्चियों में चिड़चिड़ापन पैदा हो रहा है। ऐसी ही कहानी भारत के दसियों लाख बच्चों की है जो कोविड महामारी की वजह से अपने घरों में कैद हैं।
दरअसल स्कूल बंद हैं और बच्चों को अपनी क्लासेज भी ऑनलाइन ही करनी पड़ रही हैं। 5-16 साल की उम्र के बच्चे स्कूलों में ही अपनी जिंदगी के सबसे अहम सबक सीखते हैं। लेकिन अब वो अपने घरों में कैद हैं। उनकी जिंदगी मोबाइल या लैपटॉप स्क्रीन तक सिमट कर रह गई है। न वो दोस्तों से मिल पा रहे हैं और न ही प्ले ग्राउंड्स तक जा पा रहे हैं। इससे सिर्फ उनकी मेंटल एबिलिटी ही इफेक्ट नहीं हो रही है बल्कि उनकी फिजिकल फिटनेस और सोशल स्किल्स भी प्रभावित हो रही हैं।
इसको लेकर भास्कर ने चाइल्ड हेल्थ एक्सपर्ट, विजन एक्सपर्ट और डाइटीशियन से बातचीत की और यह समझने की कोशिश की कि कैसे बच्चों को कोविड के साइड इफेक्ट से बचाया जा सकता है।
डॉ. रितु गुप्ता, चाइल्ड एंड एडोलेसेंट हेल्थ एक्सपर्ट हैं। वे कहती हैं कि बच्चे न स्कूल जा पा रहे हैं और न ही अपने फ्रेंड्स से मिल पा रहे हैं। उनकी फिजिकल एक्टिविटी भी घर तक ही रेस्ट्रिक्ट हो गई है। इसका बच्चों की पर्सनालिटी और ग्रोथ दोनों पर असर हो रहा है। बच्चे की मेंटल हेल्थ भी प्रभावित हो रही है। बच्चों को चियरफुल और तरोताजा बनाए रखने के लिए पेरेंट्स के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि वो घर का माहौल पॉजिटिव बनाए रखें।
डॉ. रितु कहती हैं, ‘पेरेंट्स बच्चों के रोल मॉडल होते हैं, वो जैसा करते हैं, बच्चे उन्हें ऑब्जर्व करते हैं। पेरेंट्स घर में ऐसा कुछ न करें जिसका बच्चों पर निगेटिव इम्पैक्ट हो। घर में रहने की वजह से बच्चे चिड़चिड़े भी हो रहे हैं। वो जो करना चाहते हैं, कर नहीं पा रहे हैं ऐसे में कई बार वो खीझ जाते हैं और अटपटी हरकतें करने लगते हैं।’
बच्चों को पुराने किस्से कहानियां सुनाएं
पेरेंट्स की उम्मीद रहती है कि बच्चे हर समय पढ़ें, डिसिप्लिंड रहें, लेकिन बच्चों को स्वतंत्र रहना होता है, शैतानी करनी होती है। ऐसे में बच्चे चिड़चिड़े हो जाते हैं। पेरेंट्स को इसे टेकल करना चाहिए। बच्चों से गुस्से से बात नहीं करनी चाहिए। जिस भी समय पेरेंट्स और बच्चे एक साथ हैं, उन मोमेंट्स को हैप्पी मोमेंट्स बनाएं। लाइट ह्यूमर की बातें करें। पुराने किस्से कहानियां सुनाएं। इससे बच्चों के पास इस मुश्किल वक्त की खूबसूरत यादें होंगी।
डॉ. रितु कहती हैं, ‘पेरेंट्स बच्चों को समझने के बजाय उन्हें डांट रहे हैं जिससे घर में टेंशन का माहौल क्रिएट हो रहा है। पेरेंट्स को समझना चाहिए कि बच्चे किस स्थिति से गुजर रहे हैं। परिवार को ऐसी एक्टिविटी करनी चाहिए जिसमें सब एक साथ बैठे हों, जैसे इनडोर गेम खेलना, मिल कर डांस या योग करना या रस्सी कूद जैसे गेम्स खेलना। इससे फिजिकल एक्टिविटी और एक दूसरे के साथ बॉन्डिंग बढ़ेगी, हैप्पी हार्मोंस भी पैदा होंगे जिससे तनाव कम होगा।’
डॉ. रितु कहती हैं, ‘बच्चों के पास करने के लिए भी बहुत कुछ नहीं है। मदर्स को अपने घर के काम में बच्चों को भी शामिल करना चाहिए। इससे दो अच्छी चीजें होंगी- पहला पेरेंट्स और बच्चों की बॉन्डिंग बढे़गी, दूसरा काम करने से बच्चों में शेयरिंग इज केयरिंग की फीलिंग भी आएगी।’ बढ़ती उम्र में बच्चे लाइफटाइम रिलेशंस बनाते हैं। उनकी दोस्ती मजबूत होती है, लेकिन फिजिकल डिस्टेंस ने उन्हें दोस्तों से दूर कर दिया है। ऐसे में पेरेंट्स को चाहिए कि वो बच्चों को अपने हम उम्र बच्चों के साथ बात करने दें।’
कोविड महामारी की वजह से घरों में निगेटिव माहौल भी बना है। किसी के संक्रमित होने या रिश्ते-नाते में कैजुअलटी होने का असर घर के वातावरण पर पड़ता है। बड़े तो काफी हद तक इससे उबर जाते हैं, लेकिन बच्चों में ये लॉन्ग टर्म तक रह सकता है।
उनके मुताबिक, ‘यदि पेरेंट्स टेंशन में हैं, घबराए हुए हैं, डरे हुए हैं तो इसका असर बच्चों पर भी पड़ेगा। बच्चे भी तनाव और डर में आ जाएंगे, लेकिन यदि पेरेंट्स शांत हैं, निश्चिंत हैं और मुश्किल परिस्थिति का सामना डट कर कर रहे हैं तो इससे बच्चे भी इंस्पायर होंगे। शांत रहकर चुनौती का सामना करने से बच्चे भी परिस्थितियों को हैंडल करना सीखेंगे। पेरेंट्स बच्चों को सिचुएशन को हैंडल करना सिखाएं न कि उससे भागना। ये मोमेंट बच्चों में लाइफटाइम के लिए स्किल डेवलप करेंगे।’
पेरेंट्स को भी अपने मेंटल हेल्थ पर काम करना चाहिए
इस महामारी का एक और निगेटिव इम्पेक्ट ये है कि इससे पेरेंट्स की मेंटल हेल्थ भी प्रभावित हो रही है। लोग घबराहट और डिप्रेशन में जा रहे हैं। डॉ. रितु गुप्ता कहती हैं, ‘पेरेंट्स भी अपनी मेंटल हेल्थ पर काम करें और मुश्किल परिस्थितियों से पूरी शक्ति के साथ लड़ना सीखें। जब पेरेंट्स लाइफ स्किल्स और रेजिलिएंस दिखाएंगे तो बच्चे भी उनसे सीखेंगे।’
डॉ. रितु कहती हैं कि सिचुएशन ऐसी होती है कि कई बार पेरेंट्स के हाथ में बहुत कुछ नहीं होता, लेकिन फिर भी तमाम चुनौतियों के बावजूद उन्हें घर में टेंशन फ्री और हैप्पी माहौल बनाए रखने की कोशिश करनी चाहिए। इससे बच्चों की शारीरिक और मानसिक सेहत बची रहेगी।
दो साल से कम उम्र के बच्चों का स्क्रीन टाइम जीरो होना चाहिए
डॉ. अमित गुप्ता आई स्पेशलिस्ट हैं। वे कहते हैं कि हम आउटडोर एनिमल थे, हमारी आंखें बनीं हुई हैं दूर तक देखने के लिए, लेकिन आजकल हम अधिकतर इंडोर रहते हैं जिसकी वजह से हमारी आंख भारी रहती है, सर भारी रहता है। इस वजह से चश्मा लगने के चांस भी बढ़ जाते हैं। पेरेंट्स को इस समय बच्चों की आइसाइट का खास ख्याल रखना चाहिए।
बच्चे ऑनलाइन क्लास करते हैं, फिर मोबाइल या टीवी पर राइम्स या कार्टून देखते हैं। इससे उनका स्क्रीन टाइम बहुत ज्यादा बढ़ गया है। आई केयर विशेषज्ञ मानते हैं कि दो साल से कम उम्र के बच्चों का स्क्रीन टाइम जीरो होना चाहिए। पेरेंट्स को इस उम्र के बच्चों को मोबाइल से दूर रखना चाहिए, पर आजकल एक साल तक के बच्चे भी मोबाइल देख रहे हैं।
वे कहते हैं, ‘दो साल से कम उम्र के बच्चों का स्क्रीन टाइम जीरो होना चाहिए। 2-5 साल के बच्चों का स्क्रीन टाइम एक घंटे होना चाहिए, वो भी पेरेंट्स के सुपरविजन में। 5 साल से अधिक उम्र के बच्चे 1-3 घंटे तक स्क्रीन यूज कर सकते हैं। जो बच्चे ऑनलाइन क्लासेज कर रहे हैं, उन्हें इसके अलावा स्क्रीन न यूज करने दें।’
लेकिन कड़वा सच ये है कि कई बार पेरेंट्स अपनी सहूलियत के लिए बच्चों को फोन थमा देते हैं। उन्हें कुछ और करना होता है या वो बच्चों पर ध्यान नहीं दे पा रहे होते हैं तो उन्हें फोन थमाकर पीछा छुड़ा लेते हैं। इससे बच्चों में मोबाइल फोन यूज करने की आदत पैदा हो रही है।
डॉ. अमित कहते हैं , ‘बच्चों को मोबाइल स्क्रीन से दूर रखना और उनकी आइसाइट को सेव करना पेरेंट्स की जिम्मेदारी है। बाजार में ब्लू लाइट वाले कई ऐसे चश्मे भी आए हैं जो आइसाइट बचाने का दावा करते हैं, लेकिन इस तरह के गैजेट्स का कोई रियल इम्पेक्ट नहीं है। पेरेंट्स को बच्चों को और चीजें मुहैया करानी चाहिए ताकि उनका मोबाइल का इस्तेमाल कम हो।’
20 मिनट, 20 फीट, 20 सेकेंड रूल
डॉ. अमित के मुताबिक बच्चों की आइसाइट बचाने के लिए एक गोल्डन रूल है जिसे 20 मिनट, 20 फिट, 20 सेकेंड कहते हैं। वो बताते हैं, ‘जब बच्चा ऑनलाइन क्लास ले रहा हो तो उसे हर बीस मिनट में स्क्रीन ब्रेक लेना चाहिए, उस दौरान उसे बीस सेकेंड तक कम से कम बीस फीट दूर रखी किसी चीज पर फोकस करना चाहिए। इससे उसका दूर का विजन बचा रहेगा।’
डॉ. अमित कहते हैं, ‘खाली समय मिलने पर बच्चों को बालकनी या छत पर जाना चाहिए और दूर की चीजों को देखना चाहिए। इससे उनकी आंखें दूर तक देखने की अभ्यस्त रहेंगी। बच्चों को कम से कम दो घंटे आउटडोर एक्टिविटी भी करनी ही चाहिए। ये छत पर खेलने से भी हो सकती है।’
रूटीन के हिसाब से बच्चों को खाना खिलाएं
साईं महिमा, डाइटीशियन और न्यूट्रिशन एक्सपर्ट हैं। वे कहती हैं कि पेरेंट्स अपने बच्चे को इतना ही खिलाएं जितना वो खा पा रहा हो। बेहतर ये है कि हर दो घंटे में उन्हें छोटे-छोटे मील दें। वो कहती हैं, ‘अपने बच्चे की तुलना दूसरे बच्चों से न करें। ये कभी न कहें कि वो बच्चा तो इतना खाता है, तुम क्यों नहीं खा पा रहे हो। एक रूटीन बनाए जिसमें आपका बच्चा तय इंटरवल के बाद कुछ न कुछ खाए। उदाहरण के तौर पर यदि आप रोज नहलाने के बाद बच्चे को कुछ खिलाते हैं तो ये अपने आप में रूटीन बन जाएगा। उसे नहाकर ब्रेकफास्ट लेने की आदत हो जाएगी। ये एक हेल्दी हैबिट है।’
वो सलाह देती हैं कि पेरेंट्स मील टाइम को बच्चे के लिए फन टाइम बनाएं। जैसे खिलाते हुए उन्हें कोई स्टोरी सुनाएं। बच्चों से प्लेट को डेकोरेट या गार्निश करवा सकते हैं। बच्चों के सामने इंटरेस्टिंग खाना परोसे। प्लेट में आप उन्हें कैसे खाना परोसते हैं, ये बच्चों के लिए बहुत मायने रखता है। बच्चों को हेल्दी फूड्स खाने के फायदे भी बताएं। उन्हें बताएं कि गाजर खाना आंखों के लिए और नट्स खाना दिमाग के लिए फायदेमंद है।
गर्मियों में बच्चों को बेल का शर्बत, आम पन्ना, तरबूज जूस और छाछ जैसे कूलर ड्रिंक्स दें। इससे वो हाइड्रेट रहेंगे और उन्हें जरूरी न्यूट्रिएंट्स भी मिलेंगे। डॉ. साईं महिमा कहती हैं कि लॉकडाउन के दौरान पेरेंट्स बच्चों में हेल्दी फूड हैबिट्स डेवलप करके उन्हें कई तरह की फिजिकल और मेंटल प्रॉब्लम से बचा सकते हैं।