ईद मुबारक / रमजान के महीने में ही रोजे रखने का है कुरान से रिश्ता, खास कारण से कहा जाता है इसे मीठी ईद

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया के विद्वानों ने बताए सवालों के जवाब

ईद रोजे पूरे होने के जश्न का दिन है। 30 दिन तक रोजेदार पूरे इमान से रोजे के कायदों को जीता है, 31वें दिन अल्लाह को रोजे पूरे होने का शुक्रिया करने के लिए ईद पर मुंह मीठा करता है। लेकिन, इस्लाम को ना जानने वाले या कम जानने वालों के मन में कई तरह के सवाल होते हैं। रमजान का महीना ही क्यों चुना गया रोजे के लिए, 30 दिन ही रोजे क्यों रखे जाते हैं, क्या रमजान के महीने का कुरान लिखे जाने से कोई संबंध है?

ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब के लिए हमने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर प्रो. आफताब आलम, जामिया मिलिया इस्लामिया के इस्लामिक स्टडीज के प्रो. जुनैद हारिस, जामिया मिलिया इस्लामिया के उर्दू विभाग के हेड डॉ. शहजाद अंजुम, मुस्लिम मामलों के जानकार डॉ. महमूम हुसैन आदि से चर्चा की।

  • रमजान के महीने में ही रोजे क्यों?

रमजान हिजरी वर्ष का नौवां महीना है। इस्लाम में इसकी सबसे ज्यादा मान्यता इसलिए है क्योंकि रमजान के महीने में पैगंबर मोहम्मद सा. को कुरान की आयतें उतरना शुरू हुईं। रोजे की परंपरा पैगंबर साहब के पहले भी मानी गई है। खुद पैगंबर साहब ने भी रोजे रखे। लेकिन, तब ये फर्ज (अनिवार्य) नहीं थी। जब पैगंबर साहब मक्का से मदीना आए। तब उन्होंने इसे हर इस्लाम मानने वाले के लिए इसे फर्ज किया। ये भी माना जाता है कि उन्होंने ही रोजे के साथ कुछ नए नियम जोड़े, जिसमें जकात (दान) सबसे महत्वपूर्ण है। तब से रमजान के पूरे महीने रोजे रखना हर इस्लाम मानने वाले के लिए जरूरी हो गया।

  • 30 दिन ही रोजे क्यों? 

रमजान के महीने में 30 दिन रोजे रखना ये कुरान शरीफ की भी हिदायत है। पैगंबर साहब का कहना था कि साल के 12 में से 11 महीने हम दुनियादारी में जीते हैं। खुद की बेहतरी के लिए समय नहीं निकालते। रमजान के पूरे महीने (30 रोजे) इसके लिए फर्ज किए गए हैं। खुद को बेहतर बनाने, दुनियादारी से अलग खुद को नेकी की राह पर चलाने और लोगों की मदद करने के लिए इस एक महीने को चुना गया है। इसमें अपनी आमदानी का ढाई फीसदी जकात (दान) करने का कायदा बनाया गया है। रोजा सिर्फ खाने से दूर रहने का नहीं है, बल्कि सोच, कर्म और हर तरह से अपनी शुद्धता के लिए है।

मदीना जहां कुरान शरीफ को अंतिम रूप दिया गया था। यहीं पर पैगंबर साहब ने 10 साल गुजारे थे। इस्लाम में मक्का-मदीना की यात्रा ही सबसे बड़ी यात्रा मानी जाती है।
  • सेहरी और इफ्तारी क्यों होती है? इसका मतलब क्या?

रोजा सूरज उगने के सवा घंटे पहले से शुरू होता है। सूरज ढलने के साथ खत्म होता है। सूरज उगने से पहले और सूरज ढलने के बाद ही कुछ खा सकते हैं या पी सकते हैं। सूरज उगने से पहले अल-सुबह जो खाया जाता है, उसे सेहरी कहा जाता है। शाम को सूर्यास्त के बाद रोजा खोला जाता है। इसे इफ्तारी यानी रोजा पूरा होने की रस्म कहा जाता है। आमतौर पर रोजा खजूर खाकर ही तोड़ा जाता है। सेहरी और इफ्तारी के बीच ना पानी पिया जाता है, ना कुछ खाया जाता है। ये कड़ा नियम खुद को नेकी की राह पर चलाने और नेक कामों के लिए तैयार रहने की एक सीख (ट्रैनिंग) के जैसा है।

  • क्या रमजान का कुरान लिखे जाने से कोई संबंध है?

हां, रमजान के महीने में ही कुरान की आयतें पैगंबर साहब को नाजीर (मिली) हुई थीं। हालांकि, पूरे रमजान के महीने में ऐसा नहीं हुआ था। रमजान के आखिरी दस दिनों की खास तारीखों को कुरान की आयतें उतरी थीं। ये तारीखें 21, 23, 25, 27 और 29 तारीखें थी। इस लिहाज से ही रमजान को इस्लाम में सबसे पवित्र महीना माना गया है। कुरान को पूरा होने में 23 साल का समय लगा था। इन 23 सालों में 13 साल पैगंबर मोहम्मद सा. मक्का और 10 साल मदीना में रहे थे। इन 23 सालों में कुरान की सारी आयतें उतरीं। इसकी शुरुआत तब हुई जब पैगंबर सा. खुद 40 साल के थे। उन्होंने खुद को इसी उम्र में पैगंबर (अल्लाह का संदेशवाहक) घोषित किया था। ये घटना मक्का में हुई थी। इसके 13 साल बाद वे मदीना आ गए थे।

पवित्र मक्का, जो पैगंबर मोहम्मद साहब का जन्म स्थान भी माना जाता है। यहीं पर उन्होंने खुद को नबी घोषित किया था।
  • इसे मीठी ईद क्यों बोलते हैं और यह बकरीद से अलग क्यों होती है?

30 दिन के रोजे पूरे होने की खुशी में ईद मनाई जाती है। ये वो उत्सव है, जिसमें रोजे रखने वाला अल्लाह को शुक्रिया अदा करता है। अपने रोजे पूरे होने की खुशी में मीठा खाता है। इस्लामिक साहित्य के शोधकर्ता ये भी मानते हैं कि खुद पैगंबर मोहम्मद सा. भी रोजे खत्म होने के बाद नमाज के लिए जाने से पहले खजूर खाकर अपना मुंह मीठा करते थे, फिर नमाज के लिए जाते थे। यहीं से इसका नाम मीठी ईद पड़ गया। बकरीद, मीठी ईद के 70 दिन बाद आती है। ये कुर्बानी का त्योहार है। इसके पीछे एक अलग कहानी है।

बकरीद की शुरुआत इस्लाम के एक और पैगंबर हजरत इब्राहिम से हुई। ऐसी मान्यता है कि हजरत इब्राहिम को सपने में अल्लाह ने उससे सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देने के लिए कहा तो उन्होंने अपने बेटे की ही बलि देने का फैसला किया। ऐसा करते हुए कहीं उनके हाथ रुक न जाएं, इसलिए उन्‍होंने अपने आंखों पर पट्टी बांध ली। बलि देने के बाद जब उन्‍होंने पट्टी खोली तो देखा कि उनका बेटा तो उनके सामने जिंदा खड़ा था और जिस की बलि दी गई थी वो बकरी, मेमना, भेड़ की तरह दिखने वाला जानवर था। इसी दिन से इसे त्‍योहार के रूप में मनाया जाने लगा और इसका नाम बकरीद पड़ गया।

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