इस बात में दो राय नहीं हो सकती कि लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता एक जीवनदायिनी शक्ति है . जिन देशों में भी लोकतंत्रीय व्यवस्था कायम है वहां की पत्रकारिता काफी हद तक उस व्यवस्था को जारी रखने के लिए ज़िम्मेदार है . अपने यहाँ भी प्रेस की ज़िम्मेदारी भरी आजादी की अवधारणा संविधान में हुए पहले संसोधन से ही आती है .आज़ादी के बाद हमारे संस्थापकों ने प्रेस की आज़ादी का प्रावधान संविधान में ही कर दिया लेकिन जब उसका ट्रंप की तरह दंगे भड़काने के लिए इस्तेमाल होने लगा तो संविधान में पहले संशोधन के ज़रिये उसको और ज़िम्मेदार बना दिया गया . . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की जो व्यवस्था दी गयी है,उसपर कुछ पाबंदी लगा दी गयी .और प्रेस की आज़ादी को निर्बाध ( अब्सोल्युट ) होने से रोक दिया गया . संविधान के अनुच्छेद 19(2) में उसकी सीमाएं तय कर दी गयीं . संविधान में लिख दिया गया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के “अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमान, मानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी. ” यह भाषा सरकारी है लेकिन बात समझ में आ जाती है .
स्वतंत्र मीडिया सरारों की रक्षा करता है ,असत्य आचरण करने वाला चापलूस मीडिया सरकारी पक्ष का ज़्यादा नुक्सान करता है .इसलिए सरकारों को मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए .तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह गलती 1975 में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , इंदिरा जी के पास तक सूचना पंहुचा सकने वालों में सभी चापलूस होते थे, इसलिए उनको सही ख़बरों का पता ही नहीं लगता था .
उनको बता दिया गया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं . उन्होंने उसी सूचना के आधार पर चुनाव करवा दिया और १९७७ में चुनाव हार गयीं . लेकिन यह हार एक दिन में नहीं हुई . उसकी तह में जाने पर समझ में आयेगा कि इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि ‘ इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज इंदिरा ,’ इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि ,’ जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी ‘. रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .मौजूदा शासकों को इस तरह की प्रवृत्तियों से बच कर रहना चाहिए क्योंकि मीडिया का चरित्र बहुत ही अजीब होता है . इमरजेंसी के दौरान पत्रकारों का एक वर्ग किसी को भी आर एस एस का सदस्य बताकर गिरफ्तार करवाने की फ़िराक में रहता था .
जैसे आजकल किसी को अर्बन नक्सल पह देने का फैशन हो गया है .उस दौर में भी बहुत सारे पत्रकारों ने आर्थिक लाभ के लिए सत्ता की चापलूसी में चारण शैली में पत्रकारिता की . गौर करने की बात यह है कि इंदिरा गांधी जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं जिन्होंने अपने खिलाफ लिखने वालों को खूब उत्साहित किया था . एक बार उन्होंने कहा था कि मुझे पीत पत्रकारिता से नफरत है लेकिन मैं किसी पत्रकार के पीत पत्रकारिता करने के अधिकार की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करूंगा . नेहरू ने पत्रकारिता और लोकशाही को जिन बुलंदियों तक पंहुचाया था ,सत्तर के दशक में उन मूल्यों में बहुत अधिक क्षरण हो गया था . पत्रकारिता में क्षरण का ख़तरा आज भी बना हुआ है . चारण पत्रकारिता सत्ताधारी पार्टियों की सबसे बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये . एक आफ द रिकार्ड बातचीत में बीजेपी के मीडिया से जुड़े एक नेता ने बताया कि जो पत्रकार टीवी पर हमारे पक्ष में नारे लगाते रहते है , वे हमारी पार्टी का बहुत नुक्सान करते हैं . भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में इस तरह की सोच एक अच्छा संकेत है . स
आज ( 14 जनवरी ) ऐसे ही एक पत्रकार की पुण्यतिथि है . उस वक़्त की सबसे आदरणीय समाचार एजेंसी , यू एन आई के लखनऊ ब्यूरो चीफ , आर एन द्विवेदी का 1999 में इंतकाल हो गया था . करीब चौथाई शताब्दी तक उन्होंने लखनऊ की राजनीतिक घटनाओं को बहुत करीब से देखा था . उन दिनों चौबीस घंटे टीवी पर ख़बरें नहीं आती थी. इसलिए हर सत्ताधीश एजेंसी के ब्यूरो चीफ के करीब होने की कोशिश करता था . उस दौर में बहुत सारे पत्रकारों ने सत्ताधारी पार्टी की जयजयकार करके बहुत सारी संपत्ति भी बनाई लेकिन लखनऊ में विराजने वाले इस फ़कीर ने केवल सम्मान अर्जित किया . पक्ष विपक्ष की सभी ख़बरों को जस की तस ,कबीर साहेब की शैली में प्रस्तुत करते रहे और जब इस दुनिया से विदा हुए तो अपने पेशे के प्रति ईमानदारी का परचम लहराकर गए . उन्हीं की बुलंदी के एक पत्रकार ललित सुरजन को पिछले महीने हमने खोया है . यह लोग सत्तर के दशक की पत्रकारिता के गवाह हैं. मैं मानता हूँ कि भारत के राजनीतिक इतिहास में जितना महत्व 1920 से 1947 का है , उतना ही महत्व 1970 से 2000 तक कभी है . जितना परिवर्तन उस दौर में हुआ उसने आने वाले दशकों या शताब्दियों की दिशा तय की.
आज़ादी की लड़ाई के शुरुआती दिनों से ही उत्तर प्रदेश की राजनीतिक .घटनाएं इतिहास को प्रभावित करती रही हैं . इन तीस वर्षों में भी उत्तर प्रदेश में जो भी हुआ उसका असर पूरे देश की राजनीति पर पड़ा. कांग्रेस का विघटन, इमरजेंसी का लगना , वंशवादी राजनीति की स्थापना , जनता पार्टी का गठन और उसका विघटन , भारतीय जनता पार्टी की स्थापना , बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन , उसका विध्वंस , दलित राजनीति का उत्थान, समाजवादी सोच के साथ राजनीति में भर्ती हुए लोगों के लालच की घटनाएँ , केंद्र में गठबंधन सरकार की स्थापना , मंडल कमीशन लागू होना , केंद्र में बीजेपी की अगुवाई में सरकार की स्थापना अदि ऐसे विषय हैं जिन्होंने देश के भावी इतिहास की दिशा तय की है . इन राजनीतिक गतिविधियों में इंदिरा गांधी , संजय गांधी, राजीव गांधी ,चौ चरण सिंह, चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी ,अशोक सिंघल,विश्वनाथ प्रताप सिंह , मुलायम सिंह यादव , कल्याण सिंह , कांशीराम ,मायावती और राजनाथ सिंह की भूमिका से कोई भी इनकार नहीं कर सकता . इन सबको बहुत करीब से देखते और रिपोर्ट करते हुए आर एन द्विवेदी ने देश और दुनिया को बाखबर रखा और पत्रकारिता का सर्वोच्च मानदंडों को जीवित रखा .इसलिए उनको जानने वाले उनकी तरह की पत्रकारिता को बहुत ही अधिक महत्व देते हैं .हम जानते हैं कि देश के लोकतंत्र की रक्षा में राजनीतिक पार्टियों , विधायिका , न्यायपालिका, कार्यपालिका का मुकाम बहुत ऊंचा है लेकिन पत्रकारिता का स्थान भी लोकतंत्र के पक्षकारों को बाखबर रखने में बहुत ज्यादा है . इसलिए लोकतंत्र को हमेशा ही निष्पक्ष पत्रकारिता की ज़रूरत बनी रहेगी .
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार
वरिष्ठ पत्रकार और कॉलमिस्ट. देश और विदेश के राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर गहरी पकड़ है. कई अखबारों के लिए कॉलम लिखते रहे हैं.
लेख सभार-न्यूज18