मर्डर के बाद भी धड़कते दिल ने कातिल को पकड़वाया:’हार्ट ब्रेन’ बनाता है दिल को बॉस, दिमाग को भी देता है ऑर्डर
आज वर्ल्ड हार्ट डे है। इसके बारे में आपने बहुत कुछ पढ़ा या जाना होगा। मगर, हम आपसे दिल के दिल और दिमाग के बारे में बातें करेंगे।
केस 1: हार्ट ट्रांसप्लांट के बाद बदल गई डांसर की पर्सनैलिटी
साल 1988 में अमेरिका की एक प्रोफेशनल डांसर क्लेयर सिल्विया का हार्ट ट्रांसप्लांट किया गया। उस समय उनकी उम्र 47 साल थी। ट्रांसप्लांट के बाद सिल्विया खुद में अचानक बदलाव महसूस करने लगीं।
सिल्विया का मन बियर पीने के लिए मचलने लगा। फ्राइड चिकन, नगेट्स और ऐसी ही दूसरी चीजें खाने के लिए क्रेविंग होने लगी, जो उन्हें कभी भी पसंद नहीं थीं। उनकी चाल में भी बदलाव आ गया और वह पुरुषों की तरह चलने लगीं।
इन बदलावों के बाद उन्होंने हार्ट डोनर के बारे में पता लगाना शुरू किया। पता चला कि उन्हें 18 साल के एक लड़के का दिल लगाया गया था, जिसकी मौत बाइक एक्सिडेंट में हो गई थी। उसके परिवार ने बताया कि वे सारी चीजें उस लड़के को बेहद पसंद थीं, जो ट्रांसप्लांट के बाद सिल्विया को भी पसंद आने लगीं।
केस 2: बच्ची को दिखने लगी दिल देने वाली लड़की की हत्या
एक 8 साल की बच्ची को 10 साल की उस लड़की का दिल लगाया गया, जिसकी हत्या कर दी गई थी। ट्रांसप्लांट के बाद बच्ची हत्या से जुड़े भयानक सपने देखने लगी। उसकी मां ने साइकेट्रिस्ट से संपर्क किया।
काउंसलिंग के कुछ सेशन के बाद साइकेट्रिस्ट ने बताया कि बच्ची को उस लड़की की हत्या की घटना दिखने लगी है, जिसका दिल उसे लगाया गया था। फिर उन्होंने पुलिस को इसकी जानकारी दी।
बच्ची से हत्या के समय, हथियार, क्राइम सीन, हत्यारे के कपड़े के बारे में पता चला। साइकेट्रिस्ट ने यह डिटेल पुलिस को सौंप दी। जिसके आधार पर जांच करते हुए पुलिस ने हत्यारे को पकड़ लिया। इस घटना का जिक्र अमेरिका के न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट पॉल पियर्सेल ने अपनी किताब ‘द हार्ट्स कोड: टैपिंग द विजडम एंड पावर ऑफ अवर हार्ट एनर्जी’ में किया है।
आप इसी तरह की कहानी देखने में इंटरेस्टेड हैं या इस विषय से जुड़ी एक और कहानी को गहराई से समझना चाहते हैं तो आप नेटफ्लिक्स पर अभी दिखाई जा रही सीरीज ’ द मार्क्ड हार्ट’ देख सकते हैं।
ऐसे ही कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें हार्ट ट्रांसप्लांट के बाद डोनर की आदतों की झलक, दिल पाने वाले की पर्सनैलिटी में दिखने लगती है। पॉल पियर्सेल के साथ ही कई और रिसर्चर ऐसी घटनाओं पर रिसर्च करते रहे हैं।
बात हार्ट ट्रांसप्लांट की हो रही है, तो आगे बढ़ने से पहले यह जान लीजिए कि दुनिया भर में किडनी और लिवर के बाद सबसे ज्यादा जिस अंग के ट्रांसप्लांट की जरूरत पड़ती है, वह दिल ही है…
ट्रांसप्लांट के बाद अंग पाने वाले लोग अपनी लाइफस्टाइल के साथ ही खाने, म्यूजिक, आर्ट, करियर और एंटरटेनमेंट से जुड़ी पसंद-नापसंद में बदलाव महसूस करने लगते हैं। लेकिन इस बदलाव की वजह क्या है? क्या दिल अपने साथ पुराने शरीर की यादें भी जिंदा रखता है? क्या ये सब जानकर आपको ऐसा लग रहा है, ‘दिल तो पागल है’…आखिर क्या है सच, आइए जानते हैं।
दिल की पेन ड्राइव हैं कार्डिएक सेल्स, सुरक्षित रखती हैं पर्सनल डेटा
एक्सपर्ट्स का कहना है कि व्यक्तित्व में ऐसे बदलावों की वजह कार्डिएक सेल्स में मौजूद मेमोरी हो सकती है। हालांकि, ऐसा सबके साथ हो, यह जरूरी नहीं है।
इन सेल्स के पास शरीर का पर्सनल डेटा रहता है। दरअसल, मेमोरी को स्टोर करने में खास तरह की सेल्स की अहम भूमिका होती है। इन सेल्स को न्यूरॉन या नर्व सेल कहते हैं।
ये न्यूरॉन्स ब्रेन, स्पाइनल कॉर्ड, कार्डिएक सिस्टम सहित पूरे नर्वस सिस्टम में मौजूद होते हैं। इन्हीं न्यूरॉन्स के जरिए शरीर के एक अंग से दूसरे अंग तक ऑर्डर और इंफॉर्मेशन पहुंचती है.
दिल-दिमाग की गपशप में न्यूरॉन्स करते हैं मदद
इंसान के शरीर में 100 अरब से भी ज्यादा न्यूरॉन्स होते हैं। इनमें से करीब 86 अरब न्यूरॉन्स दिमाग में पाए जाते हैं। 4 से 5 हजार न्यूरॉन्स दिल में भी मौजूद होते हैं, जो दिल को धड़कने, ब्लड का सर्कुलेशन बनाए रखने में हार्ट की मदद करते हैं।
पहले माना जाता था कि ब्रेन ही पूरे शरीर को कंट्रोल करता है, वह बॉस है और हर अंग को आदेश देता है। दिमाग ही दिल को भी सिग्नल देकर कंट्रोल करता है। लेकिन, यह पूरा सच नहीं है।
दिल अपनी मर्जी का मालिक है। वह दिमाग से आदेश लेता नहीं, बल्कि देता है। उसे अपना काम करने के लिए ब्रेन से कमांड लेने की जरूरत नहीं पड़ती। ब्रेन और हार्ट दोनों मिलकर शरीर को चलाते हैं। यह काम करने के लिए दोनों आपस में बातें भी करते हैं। दोनों एक-दूसरे पर असर भी डालते हैं।
इस बात को आप दो तरीके से समझिए-
- जैसे किसी जिले को चलाने के लिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास सारी पावर होती है। वहीं, उस जिले का एसपी का रोल भी किसी तरह से कम महत्वपूर्ण नहीं है। अगर जिले को शरीर और डीएम को दिमाग माना जाए जो जिले का प्रशासन संभालता है तो एसपी दिल की तरह पूरे जिले में कानून और व्यवस्था को बनाए रखता है।
- दूसरा उदाहरण, आपने किसी एक्सिडेंट के केस में सुना होगा जब किसी का ब्रेन डेड हो जाता है लेकिन दिल धड़कता रहता है। या इसके ठीक उलट भी होता है जब दिल धड़कना बंद कर देता है, लेकिन करीब 3 से 4 मिनट तक ब्रेन डेड नहीं होता। पहले केस में दिल को डोनेट किया जाता है तो दूसरे केस में ब्रेन मेडिकल स्टडी के काम आता है।
जब वैज्ञानिकों को हार्ट की इन खूबियों के बारे में पता चला, तो उन्होंने खोजना चालू कर दिया कि आखिर दिल ब्रेन तक अपना मैसेज कैसे पहुंचाता है। रिसर्च हुई, तो पता चला कि हार्ट के पास इसके लिए अपना एक सिस्टम मौजूद है।
ब्रेन मानता है दिल का आदेश
दिल और दिमाग की इस ‘गपशप’ पर सबसे अहम रिसर्च हुई 1960 से 70 के दशक में। दो साइकोफिजियोलॉजिस्ट जॉन और लैसी ने अपनी रिसर्च में सबसे पहले पता लगाया कि दिल दूसरे अंगों से अलग है।
जैसे उसके पास खुद का दिमाग हो, खुद के लॉजिक हों। जिससे वह न सिर्फ दिमाग को लगातार कुछ खास मैसेज भेजता रहता है, बल्कि दिमाग उन संदेशों को समझकर उनपर अमल भी करता है।
जॉन और लैसी ने यह भी देखा कि दिल के इन संदेशों का असर व्यक्ति के व्यवहार, उसकी परफॉर्मेंस पर भी पड़ता है। ब्रेन जितनी इंफॉर्मेशन हार्ट को देता है, उससे कहीं ज्यादा मैसेज दिल ब्रेन तक पहुंचाता है।
‘हार्ट ब्रेन’ दिल को ऐसे बनाता है बॉस
इसके लिए दिल की मदद करता है उसका खुद का नर्वस सिस्टम। जिसे ‘इंट्रिंसिक कार्डिएक नर्वस सिस्टम’ कहते हैं। शरीर के सेंट्रल नर्वस सिस्टम से जुड़े होने के बावजूद इसकी अलग अपनी पहचान है।
यही दिल के लिए ब्रेन का काम करता है। 1990 के दशक में न्यूरोकार्डियोलॉजिस्ट डॉ. जे. एंड्रयू आर्मर ने हार्ट की इंटेलिजेंस और कम्यूनिकेशन स्किल्स देखीं, तो उन्होंने पहली बार ‘हार्ट ब्रेन’ टर्म का इस्तेमाल किया।
रिसर्च में यह बात साबित हो चुकी है कि ‘इंट्रिंसिक कार्डिएक नर्वस सिस्टम’ के जरिए भेजी गई सूचनाएं ब्रेन के अलग-अलग हिस्सों को प्रभावित करती हैं। ‘दिल चाहता है’ बहुत कुछ करना लेकिन इसका असर मुख्य तौर पर अटेंशन, मोटिवेशन, इमोशंस और बिहेवियर पर ही पड़ता है
अब जरा जान लीजिए इस दिल के अंदर बैठा दिमाग कैसे काम करता है जिसे हार्ट ब्रेन कहते हैं…
क्या है ‘इंट्रिंसिक कार्डिएक नर्वस सिस्टम’
यह गैंग्लियन (न्यूरॉन्स के समूह), न्यूरोट्रांसमीटर्स, प्रोटीन्स और कोशिकाओं से मिलकर बनता है। यह नेटवर्क एक तरह से दिमाग की तरह ही काम करता है। जिससे इसे सीखने, याद रखने, फैसला लेने, फील करने और पहचानने की क्षमता भी मिलती है।
रिसर्च से पता चला है कि ‘इंट्रिंसिक कार्डिएक नर्वस सिस्टम’ में शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म मेमोरी, दोनों तरह के फंक्शन होते हैं। इसीलिए, दिल कभी जिद्दी हो जाता है तो कभी बेईमान।
‘हार्ट ब्रेन’ क्या वाकई ब्रेन है?
नहीं, दिल के पास ब्रेन जैसे सेल्स होने का मतलब यह नहीं है कि उसके पास एक अलग ब्रेन है। ‘हार्ट ब्रेन’ के पास सोचने की क्षमता नहीं है।
‘इंट्रिंसिक कार्डिएक नर्वस सिस्टम’ न्यूरॉन्स से बना एक जटिल सिस्टम है, जो कंप्यूटर चिप की तरह काम करता है।
एक ऐसी कंप्यूटर चिप, जो आपके लैपटॉप को चला रही है। अब सवाल उठता है कि आखिर दिल को अपने लिए ब्रेन जैसे एक अलग सिस्टम की जरूरत क्यों पड़ गई।
दिल के लिए क्यों जरूरी है ‘हार्ट ब्रेन’
यह पूरा सिस्टम बॉडी की डिमांड पूरी करने में दिल की मदद करता है। दिल सही से धड़कता रहे, इसके लिए इस सिस्टम का होना बहुत जरूरी है।
इसी की वजह से बालों की जड़ों से लेकर पैरों के नाखूनों तक खून पहुंचाने का काम दिल बिना थमे दिन-रात बखूबी निभाता है। शायद इसीलिए कहते हैं ‘दिल बड़ा होना चाहिए।’
दिल बड़ा रखने की बात पर याद आया कि यहां आपको यह जानकारी दे दें कि रेगुलर कॉर्डियोवैस्कुलर एक्टिविटीज करने वाले लोगों का दिल मजबूत और आकार में भी बड़ा हो जाता है। ये बात ज्यादातर लोगों को तब पता चली थी कि जब टीम इंडिया के पूर्व कैप्टन और बीसीसीआई के प्रेसिडेंट सौरव गांगुली को जनवरी, 2021 माइल्ड हार्ट अटैक आया था।
जीतोड़ मेहनत करता है दिल और पता भी नहीं लगने देता
दरअसल, हम सिर्फ खड़े होते हैं या फिर बैठते हैं, तो भी इस छोटी सी एक्टिविटी के लिए दिल को बहुत काम करना पड़ता है, उसे हर बार खुद को एकदम पर्फेक्ट पॉइंट पर एडजस्ट करना पड़ता है, ताकि ब्लड प्रेशर का लेवल खड़े होने या बैठने के दौरान सही बना रहे।
दिल अगर ब्लड प्रेशर को इस तरह कंट्रोल न करे, तो सिर्फ खड़े होने भर से ही आप चकरा कर गिर जाएंगे, बल्कि इससे जान तक जा सकती है। दिल जी-तोड़ मेहनत करता रहता है और हमें भनक तक नहीं लगने देता।
अब आपको यह तो समझ आ गया है कि आखिर ‘दिल की दौलत’ हमारे लिए कितनी जरूरी है और यह कैसे हमारे व्यवहार, हमारी भावनाओं पर असर डालता है। दर्द और डिप्रेशन भी महसूस कर सकता है।
दिल को यह ताकत उसमें पैदा होने वाले हॉर्मोंस से मिलती है। लेकिन, क्या यह पता है कि दिल की यह ताकत आपको कमजोर भी कर सकती है और दिमाग को भी बीमार बना सकती है।
तो जानते हैं कि ‘दिलजले’ फिल्मी लफ्फाजी नहीं, असल जिंदगी की हकीकत है। क्योंकि दिल की बातें दिल ही जानता है।
दिल का गम ले सकता है जान
कपल में से किसी एक की मौत के बाद दूसरे की भी जान चली जाने की घटनाएं आम हैं। कई बार ऐसा तुरंत ही हो जाता है, तो कभी-कभी कई दिन, महीने या कुछ साल बाद भी दूसरे पार्टनर की मौत हो जाती है।
इसके पीछे की वजह ‘सैड हार्ट सिंड्रोम’ या ‘ब्रोकन हार्ट सिंड्रोम’ होता है। ‘सैड हार्ट सिंड्रोम’ डिप्रेशन के चलते होता है। डिप्रेशन में दिल लगातार तनाव झेलता है।
ऐसे लोगों को दिल की बीमारियां जल्दी लगती हैं। वहीं, ‘ब्रोकन हार्ट सिंड्रोम’ अचानक किसी इमोशनल झटके की वजह से पैदा होता है। किसी करीबी की मौत की खबर सुनते ही दिल की धमनियों पर पड़ता जोर दर्द की वजह बनता है, जो कई बार कंट्रोल नहीं हो पाता। लगता है इसे ही कहते हैं दिल लिया दर्द लिया।
इससे दिल को सप्लाई होने वाले खून की मात्रा घट सकती है। नॉरपेनेफ्रिन नाम का स्ट्रेस हॉर्मोन की मात्रा बढ़ जाती है। अचानक शुरू होने वाली ये एक्टिवटीज जानलेवा हो जाती हैं
डिप्रेशन दिल को करता है बीमार, दिमाग को बना देता है भुलक्कड़
येल यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर मैथ्यू बर्ग बताते हैं कि रिसर्च में यह साबित होता रहा है कि डिप्रेशन की वजह से दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
जिन लोगों को पहले हार्ट अटैक आ चुका है और जिन्हें दिल के ब्लॉकेज के लिए ऑपरेशन की जरूरत है, उनके लिए इसका खतरा ज्यादा रहता है। उनके मुताबिक समाज से कटे रहने, लोगों से सपोर्ट न मिलने से भी दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ता है।
बीमार दिल और डिप्रेशन का असर ब्रेन पर भी पड़ता है और सीजोफ्रेनिया और डिमेंशिया जैसी समस्याएं हो सकती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि दिल को फुरसत के रात-दिन मिलने चाहिए।
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि हर कोई दिल के हाथों मजबूर होकर सुधबुध खो बैठता है। दुनिया में ऐसे लोग ज्यादा हैं, जो काम के मामले में दिल की जगह दिमाग पर भरोसा करते हैं…
नेगेटिव सोच दिल को बनाती है कमजोर
यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले में प्रोफेसर एमिलियाना सिमोन के मुताबिक गुस्सा, डर, फ्रस्ट्रेशन जैसे इमोशन अगर लंबे समय तक बने रहें, तो सेहत पर इनका बुरा असर पड़ता है।
नकारात्मक सोच का असर दिल पर भी पड़ता है। लेकिन, अच्छी बात यह है कि इसे आप कंट्रोल कर सकते हैं। अपनी सोच में बदलाव लाकर दिल को सेहतमंद और खुद को खुशमिजाज बनाए रख सकते हैं। अपने दिल से प्यार करना सीखें यानी अपने आपसे प्यार करें।
अब जानिए, एक ऐसे इंसान की कहानी, जो कंधे पर आर्टिफिशियल दिल लादकर 555 दिन तक घूमता रहा। शरीर के अंदर दिल नहीं था, पर धड़कन चलती रही…
अमेरिका में रहने वाले 25 साल के स्टैन लार्किन को दिल की एक रेयर बीमारी कार्डियोमायोपैथी थी। नवंबर 2014 में डॉक्टरों को उनका दिल निकालना पड़ा। इसके बाद उन्हें एक आर्टिफिशियल दिल लगा दिया गया। यह डिवाइस पाइप के जरिए उनकी धमनियों से जुड़ी थी।
इस डिवाइस को वह अपनी पीठ पर लटकाए घूमते रहते थे। दुनिया भर में उनका केस चर्चा में रहा। 555 दिन के बाद 2016 में उन्हें डोनर मिल सका। जिसके बाद उन्हें हार्ट ट्रांसप्लांट किया गया।
काम की बात पर दिमाग की सुनते हैं
79% लोग दिमाग तो 21% लोग दिल की सुनकर फैसला लेते हैं।
68% लोग दिल की सुनकर कारोबार में फैसला लेते हैं।
64% लोग दिमाग से अपने करियर में आगे बढ़ते हैं।
13% लोग जो दिमाग से सोचते हैं उनकी सैलरी ज्यादा होती है।
16% लोग दिमाग और 15% दिल से करियर में बदलाव करते हैं.
दिल को कराएं फील गुड
दिल पर हाथ रखें। आंखें बंद करें। 4 सेकेंड तक सांस अंदर खींचें 7 सेकंड तक रोक कर रखें। फिर 8 सेकेंड में धीरे-धीरे इसे बाहर छोड़ें। 4 बार यह प्रक्रिया दोहराएं। इससे हार्ट रेट धीमा होगा।
मन में आ रहे पॉजिटिव इमोशंस को विस्तार दें। पॉजिटिव सोचें, महसूस और मुस्कुराएं।
कल्पना करें कि ये फीलिंग्स दिल से ब्रेन तक पहुंच रही हैं। इसके लिए जितने कल्पनाशील हो सकते हैं, हो जाएं। आसपास पॉजिटिव एनर्जी महसूस करें।
धीरे-धीरे पूरे शरीर पर इसका असर फील होगा। आप खुद को खुशियों और पॉजिटिव एनर्जी से भरा महसूस करेंगे।