इतिहास गवाह है: कैप्टन ने कभी नहीं मानी पंजाब कांग्रेस प्रधान की बात, अफसरशाही के आगे बेबस थे मंत्री-विधायक

हाईकमान की तरफ से पंजाब के जितने प्रभारी बनाए गए उनकी कैप्टन ने एक नहीं सुनी। पंजाब में ‘कैप्टन कांग्रेस’ चलने लगी। 2017 में कैप्टन की सरकार सत्ता में आई तो सुनील जाखड़ को पीपीसीसी का प्रधान बनाया गया, लेकिन कैप्टन ने संगठन पर अपना कब्जा रखा।

चंडीगढ़। अकसर हाईकमान को आंखें दिखाकर पंजाब में ‘कैप्टन कांग्रेस’ चलाने वाले सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह को आलाकमान ने तगड़ा झटका दे दिया है। साथ ही यह साबित कर दिया कि अब पंजाब में ‘कैप्टन कांग्रेस’ नहीं बल्कि इंडियन नेशनल कांग्रेस चलेगी। कैप्टन अपने घर में ही काफी कमजोर हो चुके थे। कैप्टन की अफसरशाही से जलील होने वाले नाराज करीबी मंत्रियों व विधायकों ने ही दिल्ली में रोना रोया और तीन सदस्यीय कमेटी की रिपोर्ट कैप्टन के खिलाफ गई।

कैप्टन अमरिंदर सिंह 1999 में प्रदेश कांग्रेस के प्रधान बनाए गए तो पंजाब में कांग्रेस ने 2002 में शानदार जीत हासिल की। 2002 में प्रदेश कांग्रेस के प्रधान हतिंदर हंसपाल को बनाया गया। इसके बाद शमशेर सिंह दूलो प्रधान बने। शमशेर सिंह दूलो को कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब में खड़े नहीं होने दिया। दूलो के बाद मोहिंदर सिंह केपी प्रधान बने तो कैप्टन अमरिंदर सिंह ने केपी के तहत अपनी टीम को काम करने के लिए साफ मना कर दिया था। केपी अलग-थलग पड़ गए, क्योंकि कैप्टन हाईकमान को आंखें दिखाकर अपनी टीम को अलग चलाते रहे। मजबूरन कांग्रेस हाईकमान ने कैप्टन को दोबारा प्रदेश प्रधान बनाकर 2012 का चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव हार गए।

इसके बाद कैप्टन से कांग्रेस हाईकमान ने कुर्सी छीन ली और प्रताप बाजवा को पीपीसीसी (पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी) प्रधान बनाया गया। लेकिन कैप्टन व उनकी टीम ने प्रताप बाजवा के पैर पंजाब की सियासत में नहीं लगने दिए। हालांकि बाजवा मंझे हुए खिलाड़ी थे, लेकिन कैप्टन पंजाब में जाट महासभा को खड़ा कर उसके पदाधिकारियों की नियुक्तियां करने लगे। 2015 में मजबूर कांग्रेस हाईकमान कैप्टन के आगे झुक गई, क्योंकि कैप्टन ने साफ इशारा कर दिया था कि अगर उनको पीपीसीसी का प्रधान नहीं बनाया गया तो वह पार्टी को दोफाड़ कर देंगे और उनकी नई पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन कर पंजाब में 2017 में विधानसभा चुनाव लड़ेगी।

कैप्टन उस समय काफी पॉवरफुल थे उनके साथ तृप्त राजिंदर बाजवा, सुखबिंदर सुखसरकारिया, ओपी सोनी, गुरप्रीत कांगड़, राणा गुरजीत सिंह, सुनील जाखड़ आदि काफी नेता खुलकर खड़े होते थे। कैप्टन ने तो दिल्ली हाईकमान को इस कदर आंखें दिखाईं कि उन्होंने राहुल गांधी को एक समझदार नेता न होने का खिताब दे दिया। पंजाब में कांग्रेस दो फाड़ न हो जाए, इसलिए राहुल गांधी ने प्रताप बाजवा को समझाया और कैप्टन अमरिंदर सिंह को प्रधान बना दिया।

पंजाब के जितने प्रभारी बनाए, कैप्टन ने एक की नहीं सुनी

हाईकमान की तरफ से पंजाब के जितने प्रभारी बनाए गए उनकी कैप्टन ने एक नहीं सुनी। पंजाब में ‘कैप्टन कांग्रेस’ चलने लगी। 2017 में कैप्टन की सरकार सत्ता में आई तो सुनील जाखड़ को पीपीसीसी का प्रधान बनाया गया, लेकिन कैप्टन ने संगठन पर अपना कब्जा रखा। यहां तक कि पीपीसीसी प्रधान जाखड़ को एक बार सीएम हाउस में जाकर अफसरशाही से जलील होना पड़ा। कैप्टन से मिलने के लिए जाखड़ को जहां इंतजार करना पड़ा, वहीं अधिकारियों ने उनके मोबाइल तक निकलवा लिए। पंजाब में टिकट वितरण हो या फिर उपचुनाव कैप्टन ने कांग्रेस के नेताओं की नहीं सुनी। फगवाड़ा उपचुनाव में एक अधिकारी बलविंदर सिंह को इस्तीफा दिलाकर चुनाव लड़वा दिया, जबकि वहां से पुराने कांग्रेसी जोगिंदर सिंह मान मुंह देखते रह गए।

जीरा ने रोष जताया तो जारी करवाया नोटिस 
कांग्रेस पार्टी की तरफ से नेताओं को सरकार में एडजस्ट करने के लिए जो सूची भेजी जाती थी, वह भी अधिकारियों की टेबल पर धूल फांकती रही। पंजाब में महिला एससीएसटी आयोग से लेकर रिटायर डीजीपी सुरेश अरोड़ा, हरदीप सिंह ढिल्लो समेत कई अधिकारियों को कुर्सियां दी गईं और कांग्रेस नेता सीएम हाउस की तरफ लाचार व बेबस निगाहों से देखते रहे। यहां तक कि एक बार कांग्रेस विधायक कुलबीर जीरा ने अपना रोष स्टेज पर व्यक्त किया तो उलटा कैप्टन ने जीरा को ही नोटिस जारी करवा दिया और उनकी आवाज अफसरशाही की आवाज के आगे दबा दी।

अधिकारी को मुख्य प्रधान सचिव बना मंत्री-विधायक किए नाराज
पंजाब में रिटायर आईएएस अधिकारी को मुख्य प्रधान सचिव बनाकर कैप्टन ने सभी मंत्री व विधायक नाराज कर दिए। हाल ही में दो मंत्रियों को उक्त अधिकारी ने यहां तक कह दिया कि आपका काम सिर्फ पैसे मांगना है? अधिकारी ने दोनों मंत्री जलील किए, लेकिन कैप्टन ने एक नहीं सुनी। राणा गुरजीत सिंह से लेकर ओपी सोनी और तृप्त बाजवा के आगे अफसरशाही को हावी रखा और पंजाब में किसी नेता को बोलने तक नहीं दिया। अगर कोई नेता दिल्ली दरबार में जाकर शिकायत करता तो उसके पर काटने के लिए भी वक्त नहीं लगाया गया। लिहाजा, दिल्ली दरबार काफी असहज, लाचार और बेबस भी महसूस कर रहा था और वक्त के इंतजार में था।

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