कोरोना काल में प्राइवेट अस्पतालों की लूट से कब मिलेगी आम जन को राहत, देश में हर चीज का रेट फिक्स तो मेडिकल माफिया पर नकेल क्यों नहीं

मरीज चाहे मरने की हालत में हो लेकिन इलाज तब तक नहीं होगा जबतक पैसे काउंटर पर ना पहुंच जाएं। कई अस्पतालों की इस कदर दादागिरी है कि सरकार उन्हें जो भी निर्देश जारी करती है उसे रद्दी की टोकरी में फैक देते हैं। सेहत विभाग इतना लाचार है कि सबूत होने के बावजूद उनके खिलाफ किसी तरह की कारर्वाई करने की हिमायत नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति में इन अस्पतालों की हिम्मत बढ़ती है व वह ठोककर मरीजों को लूटने का धंधा करते हैं। 

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बठिंडा। हिंदुस्तान में संगठित अपराध का सबसे बड़ा सेंटर मेडिकल माफियां हैं। सरकारी अस्पताल तो बदइंतजामी और लापरवाही के चरम पर बैठे हैं, उनका रोना रोकर तो देश की जनता बीमार हो गई लेकिन उन्हीं सरकारी अस्पतालों की खस्ताहाली की कब्र इन अस्पतालों में इलाज के नाम पर धांधली और धतकर्म के जितने भी रूप होते हैं, सब होते हैं। आज जब देश कोरोना के कहर से कराह रहा है, इन अस्पतालों ने लोगों को लूटने और चूसने का ठेका ले रखा है। आप कोरोना के मरीज हैं और प्राइवेट अस्पताल में भर्ती होते हैं तो सबसे पहले आपको लाखों रुपये एडवांस देने का बंदोबस्त करना होगा। मरीज चाहे मरने की हालत में हो लेकिन इलाज तब तक नहीं होगा जबतक पैसे काउंटर पर ना पहुंच जाएं। कई अस्पतालों की इस कदर दादागिरी है कि सरकार उन्हें जो भी निर्देश जारी करती है उसे रद्दी की टोकरी में फैक देते हैं। सेहत विभाग इतना लाचार है कि सबूत होने के बावजूद उनके खिलाफ किसी तरह की कारर्वाई करने की हिमायत नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति में इन अस्पतालों की हिम्मत बढ़ती है व वह ठोककर मरीजों को लूटने का धंधा करते हैं।

खर्च की सीमा तय हो

कोरोना के इलाज में आखिर कौन सा ऑपरेशन होता है, कितने मरीज आईसीयू में जाते हैं या फिर कितनी महंगी दवाइयां दी जाती हैं कि बिल लाखों का बनता है। हैरत की बात ये है कि सरकारों की तरफ से आजतक इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि एक रोग के इलाज के लिए अधिकतम खर्च की सीमा तय की जाए।

मरीज से वसूली

इंसान अस्पताल जाने के नाम से ही डरता है क्योंकि उसकी कुल जमा पूंजी ठिकाने लग जाती है। एक धंधा बना रखा है इलाज के नाम पर। डॉक्टरों का कोटा बना हुआ है मरीज से वसूली का। इस आधार पर ही उसका अस्पताल में करियर निर्भर करता है। इसका खामियाजा आम आदमी उठाता है। मेरे कई ऐसे जानकार हैं जिनको इलाज से पहले दो लाख, तीन लाख एडवांस जमा करना पड़ा।

दस लाख का इलाज?

पिछले साल एक साथी की रिपोर्ट पॉजिटिव आई तो मैंने उसे एक बड़े अस्पताल में भर्ती कराने को कहा। थोड़ी देर बाद मुझे बताया गया कि हमें दस लाख रुपये जमा करने होंगे एडमिशन से पहले। मैं आपे से बाहर हो गया। क्या वाहियात मजाक है ये। किस बात के दस लाख? क्या होगा इतने पैसों का इलाज में? फिर मेरे एक साथी ने वहां के मैनेजर से कहा, सर डायरेक्टर से परिचय है, मैंने उनको बताया है कि पत्रकार का मामला है तो उन्होंने कहा है कि ठीक है पांच लाख जमा करवा दें। बताइए पहले10 लाख  व अब पांच लाख का कोरोना-इलाज आम आदमी कैसे करवाए? लेकिन चल रहा है। अभी बठिंडा के आईवीवाई अस्पताल में एक मामला सामने आाया। कोरोना ने एक ही परिवार के तीन लोगों की जान ले ली। अस्पताल ने मृतक का साढ़े नौ लाख का बिल बनाया जिसमें आधी राशि वह जमा करवा चुके थे लेकिन इसके बावजूद कोरोना से मृत व्यक्ति का शव देने से इंकार कर दिया। पंजाब में किसान व सामाजिक संगठन एक्टिव है उनके प्रयास से मरीज के परिजनों को कुछ राहत मिली लेकिन यह तो एक मामला था लेकिन इस तरह के दर्जनों मामले शहर के बड़े अस्पतालों में प्रतिदिन आते हैं जिसमें मरीज व उनके परिजन किसी तरह अपना सब कुछ बेचकर इन अस्पतालों का पेट भरते हैं।

प्रधानमंत्री हैं तो आपका वेतन और बाकी सुविधाएं तय हैं, सरकारी अधिकारी हैं तो भी तय हैं, प्राइवेट नौकरी में भी लगभग तय है। लेकिन प्राइवेट अस्पतालों में इलाज की कोई सीमा तय नहीं है। जबकि इन सभी अस्पतालों को कौड़ी के भाव जमीन मिलती है और टैक्स में बड़ी रियायत भी।

राहुल वोहरा का निधन

हाल ही में एक्टर और थियेटर आर्टिस्ट राहुल वोहरा का दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया। उन्होंने 8 मई को अपनी आखिरी फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि मुझे भी अच्छा ट्रीटमेंट मिल जाता तो मैं भी बच जाता। राहुल दिल्ली के बेहतर माने जाने वाले राजीव गांधी सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में भर्ती थे। सरकारी अस्पताल है और उन्होंने जो वीडियो डाला था जिसे बाद में उनकी पत्नी ज्योति तिवारी ने इंस्टाग्राम पर जारी किया था, वह डरावना है। ऐसे कांड प्राइवेट अस्पतालों में खूब होते हैं।

पंजाब सरकार ने हाल ही में प्राइवेट अस्पतालों के लिए गाइडलाइन जारी कर कोविड मरीजों के ट्रिटमेंट की कैटागिरी बनाई व इसमें चार्ज तय किए है। इन चार्जों को शहर के बड़े अस्पताल मानने से इंकार कर मनमानी वसूली कर रहे हैं।  सेहत विभाग छापामारी कर खानापूर्ति कर रहा है। कई बार इंसानियत तो छोड़िए हैवानियत की हदें भी अस्पताल पार कर जाते हैं। इसलिए मैं फिर कहना चाहूंगा कि अस्पतालों की कोरोना काल ही नहीं बल्कि कानूनन हमेशा के लिए हर उपचार की ग्रेडिंग होनी चाहिए और ग्रेड के मुताबिक अलग-अलग रोग के लिए खर्च की एक सीमा तय होनी चाहिए।

अगर उससे बाहर बिल जा रहा है तो उसको एक ऐसे सरकारी ऐप या पोर्टल पर रखना चाहिए जिस पर इस तरह के सारे मामलों को रखना सभी प्राइवेट अस्पतालों के लिए सरकार ने अनिवार्य किया हो।

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