ब्रेग्जिट ट्रेड डील पर अंतिम मुहर:ब्रिटेन की संसद में डील पास, PM जॉनसन और EU लीडर्स ने साइन किए; एक जनवरी से लागू होगी
प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने सोशल मीडिया पर लिखा कि इस डील पर साइन करके हम ब्रिटिश लोगों की इच्छा को पूरा कर रहे हैं।
PM जॉनसन ने फ्री ट्रेड एग्रीमेंट पर बहस के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाया था। उन्होंने सोशल मीडिया पर डील पर साइन करते हुए अपनी तस्वीर भी पोस्ट की। उन्होंने लिखा कि इस डील पर साइन करके हम ब्रिटिश लोगों की इच्छा को पूरा कर रहे हैं। वे अपने बनाए कानूनों के दायरे में जियेंगे, जिन्हें उनकी चुनी हुई संसद ने बनाया है।
यूरोपीय संघ की चीफ उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने सोशल मीडिया पर कहा कि उन्होंने और यूरोपीय कमीशन के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल ने ब्रुसेल्स में EU-UK ट्रेड और को-ऑपरेशन एग्रीमेंट पर साइन कर दिए हैं। उन्होंने कहा कि यह बहुत लंबा रास्ता था। अब ब्रेग्जिट को पीछे छोड़ने का वक्त आ गया है। हमारा भविष्य यूरोप में है।
4 साल पहले UK ने किया था EU से अलग होने का फैसला
UK ने जून 2016 में EU से अलग होने का फैसला किया था। ऐतिहासिक रेफरेंडम में ब्रिटेन की जनता ने 28 देशों के EU से अलग होने के पक्ष में वोटिंग की। इसके बाद EU ने UK को अलग होने के लिए 31 मार्च 2018 तक का समय दिया।
हालांकि, तब ब्रिटिश सांसदों ने यूरोप से बाहर होने की सरकार की शर्तों को नामंजूर कर दिया था। इसके बाद EU ने ब्रेग्जिट की तारीख को 31 अक्टूबर तक के लिए बढ़ा दिया। इसके बाद संसद ने भी सरकार की शर्तें नामंजूर कर दीं और ब्रेग्जिट की तारीख बढ़ाकर 31 जनवरी कर दी थी।
ब्रिटेन को EU में रहना घाटे का सौदा लगता था
EU में 28 देशों की आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी थी। इसके तहत इन देशों में सामान और लोगों की बेरोकटोक आवाजाही होती है। ब्रिटेन को लगता था कि EU में बने रहने से उसे नुकसान है। उसे सालाना कई अरब पाउंड मेंबरशिप के लिए चुकाने होते हैं। दूसरे देशों के लोग उसके यहां आकर फायदा उठाते हैं। इसके बाद ब्रिटेन में वोटिंग हुई। ज्यादातर लोगों ने EU छोड़ने के लिए वोट दिया। इसके बाद 31 जनवरी 2020 को ब्रिटेन ने EU छोड़ दिया था।
ब्रेग्जिट की जरूरत क्यों पड़ी?
ब्रिटेन की यूरोपियन यूनियन में कभी चली ही नहीं। इसके उलट ब्रिटेन के लोगों की जिंदगियों पर EU का नियंत्रण ज्यादा है। वह कारोबार के लिए ब्रिटेन पर कई शर्तें लगाता है। ब्रिटेन के सियासी दलों को लगता था कि अरबों पाउंड सालाना मेंबरशिप फीस देने के बाद भी ब्रिटेन को इससे बहुत फायदा नहीं होता। इसलिए ब्रेग्जिट की मांग उठी थी।