अकाली-भाजपा गठजोड़ के टूटने का असर बठिंडा नगर निगम चुनावों में भी दिखाई देगा

-भाजपा पिछले चुनाव से लेकर पूरे कार्यकाल में अकाली दल की नीतियों का करती रही विरोध,सदन की बैठकों से लेकर तैयार होने वाले एजेंडों का भी समय-समय पर भाजपा ने जताया विरोध, ्काली दल के साथ आम आदमी पार्टी ने भी कस रखी हैै कमर, चुनाव में कांग्रेस को पूरा विश्वास सदन में बनेगी उनकी सरकार व मेयर

बठिंडा. नगर निगम चुनाव से पहले भाजपा-अकाली दल गठजोड़ टूटने से राजनीतिक समीकरण बी बदलते दिखाई दे रहे हैं। गठजोड़ से अलग हुए अकाली दल व भाजपा के नेता इसे अपने अपने नजरिये से सकरात्मक मानकर चल रहे हैं। जमीनी सच्चाई यह है कि नगर निगम बठिंडा में साल 2015 से काबिज रहे गठजोड़ के बीच हमेशा से ही मनभेद रहा जो समय-समय पर विभिन्न हाउस की बैठकों में भाजपा के विरोध के तौर पर देखने को भी मिलता रहा। साल 2014 में जब नगर निगम चुनावों को लेकर तैयारी शुरू हुई तो सीटों के बटवारे को लेकर अकाली दल व भाजपा में जमकर कहल हुआ। इसमें भाजपा ने जहां मेयर का पद मांगने के साथ 50 वार्डों में 50 फीसदी की हिस्सेदारी मांगी लेकिन आखिर में कांग्रेस छोड़कर दो साल पहले अकाली दल में शामिल हुए पार्षद बलवंत राय नाथ को नगर निगम बठिंडा का दूसरा मेयर चुन लिया गया जबकि भाजपा पार्षद तरसेम गोयल को दोबारा सीनियर डिप्टी मेयर तथा गुरिंद्रपाल कौर मांगट को फिर से डिप्टी मेयर चुना गया था।

इसमें नगर निगम के 50 वार्डों में 22 फरवरी 2015 को चुनाव थे जिसमें से अकाली दल ने 28 सीटों में चुनाव लड़ा और 21 में जीत हासिल की तथा भाजपा ने 22 में से 8 सीटों पर जीत दर्ज की था। वहीं कांग्रेस को 10 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। इसी प्रकार आजाद उम्मीदवारों ने भी 11 सीटों पर कब्जा कर लिया था। इस प्रकार अकाली-भाजपा गठबंधन को 29 सीटें आई थी। इस दौरान बठिंडा नगर निगम की सभी 50 सीटों पर चुनाव लड़ने का दंभ भरने वाली शहरी भाजपा शिअद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न सिर्फ चुनाव लड़ने को राजी हो गई, बल्कि पुराने समझौते के मुताबिक ही महज 22 सीटों से ही संतुष्ट हो गई थी। इतना ही नहीं, शिअद ने राजनीतिक तौर पर शहरी भाजपा को शिकस्त देते हुए मेयर पद भी अपने पास ही रख लिया था।

इसके बाद पूरे पांच साल अकाली दल और भाजपा के बीच खटास रही व दोनों के बीच बैठकों से लेकर सदन में रखे जाने वाले एजेंडों को लेकर कहासुनी होती रही। कई बार तो स्थिति यह रही कि भाजपा के पार्षदों व सीनियर डिप्टी मेयर व डिप्टी मेयर ने अकाली दल के मेयर के खिलाफ मोर्चा खोलते विपक्ष की हा में हां मिलाई। फिलहाल इस बार स्थिति बदली है। नगर निगमों व कौंसिलों के चुनाव स्थायीय मुद्दे पर लड़े जाते हैं व इसमें प्रदेश की सत्ता में काबिज पार्टी का ही दबदबा निगम चुनावों में देखने को मिलता है। इस स्थिति में कांग्रेस पहले ही खुद को चुनाव में मजबूत मानकर चल रही है जबकि अब भाजपा व अकाली गठजोड़ टूटने के बाद उन्हें अपनी राह पहले से आसान दिखाई दे रही है। इसी बीच स्थानीय भाजपा लंबे समय से गले में फांस के तौर पर देख रही अकाली दल गठजोड़ के टूटने से खुश दिखाई दे रही है। वही भाजपा ने अब सभी 50 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी करते सभी मोर्चों को फतेह करने के लिए वार्ड स्तर से लेकर मंडल व जिला स्तर की टीम को मजबूत करने का काम तेज कर दिया है।

यही नहीं भाजपा चुनाव के दौरान विभिन्न वार्डों में काम नहीं होने का ठीकरा भी अब अकाली दल पर फोड़ने के लिए आजाद हो गई है। इसके पीछे उनके पास तर्क भी है और समय-समय पर हुए विवाद के उदाहरण भी है। वही पिछले तीन साल में कांग्रेस की तरफ से कोई काम नहीं करवाने व राजनीतिक पक्षपात के आरोप भी है जिसमें वह लोगों के बीच जाकर खुद को ज्यादा बेहतर ढंग से पेश करने की स्थिति में देख रही है। भाजपा को उम्मीद है कि वह इन चुनावों में पहले से बेहतर करने की स्थिति में पहुंची है। दूसरी तरफ अकाली दल के पास अपने कुनबे को बचाने का संकट है। अभी एक दिन पहले उनके पूर्व पाषर्द राजू मान ने कांग्रेस ज्वाइन कर ली। इससे पहले भी आधा दर्जन पार्षद व अकाली दल के नेता कांग्रेस का दामन थाम चुके है। इसी बीच अकाली दल और भाजपा के साथ कांग्रेस का गेम खराब करने के लिए इस बार आम आदमी पार्टी भी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरने की घोषणा कर चुकी है।

आप ने भी सबी 50 वार्डों में अपने उम्मीदवार उतारने की बात कही है। इस स्थिति में खासकर बाहरी इलाके जहां उसका कैडर मजबूत हो रहा है वह कांग्रेस के साथ भाजपा को नुकसान करने की स्थिति में है। फिलहाल नगर निगम चुनावों को लेकर अभी अकाली दल की तरफ से पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में वार्डबंदी सहित विभिन्न एतराज को लेकर अपील दायर कर रखी है जिसमें अगली सुनवाई दिसंबर में होनी है। इस सुनवाई से पहले सरकार ने जताए गए एतराज पर विचार कर अपना पक्ष कोर्ट में रखना है। इसके बीच में निगम चुनावों को लेकर दो से तीन माह का समय सभी दलों के पास है जिसमें वह अपनी स्थिति को पहले से बेहतर करने का प्रयास कर रही है।

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