COVID-19 के खिलाफ कारगर क्लोनल एन्टीबॉडी बनाने पर काम, चार भारतीय संस्थान शुरू कर रहे साझा परियोजना
भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के मुताबिक सरकार कई संस्थाओं के सामूहिक प्रयास वाली परियोजना को मंजूरी देने जा रही है जिसके तहत SARS-CoV-2 पर वार करने में सक्षम ह्यूमन मोनोक्लोनल एन्टीबॉडी बनाई जाएं.
नई दिल्ली: कोरोना महामारी के इलाज के लिए दुनियाभर में चल रही खोज कवायदों के बीच भारतीय वैज्ञानिक भी हर उस विकल्प को तलाश रहे हैं जहां उपचार की संभावना नज़र आ रही है. इस कड़ी में सरकार अब मोनोक्लोनल एंटीबॉडी बनाने की परियोजना को मंजूरी देने जा रही है, जो कोरोना वायरस को मारने में कारगर हों. इसके जरिए भविष्य में कोरोना वायरस के किसी भावी संक्रमण के खिलाफ भी ढाल बनाने की तैयारी है.
भारत के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के मुताबिक सरकार कई संस्थाओं के सामूहिक प्रयास वाली परियोजना को मंजूरी देने जा रही है जिसके तहत SARS-CoV-2 पर वार करने में सक्षम ह्यूमन मोनोक्लोनल एन्टीबॉडी बनाई जाएं. इस परियोजना को राष्ट्रीय कोशिका विज्ञान केंद्र, आईआईटी इंदौर, प्रेड ओमिक्स टेक्नोलॉजी प्रायवेट लिमिटेड और भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड मिलकर काम करेंगे.
इस परियोजना का उद्देश्य कोरोना मरीज़ों के कंवलसेन्ट फेज़ यानी जब रोगी ठीक होना शुरू हो जाए तब उसके रक्त से नोवल कोरोना वायरस के खिलाफ़ मानव एन्टीबॉडीज़ तैयार की जाएं. साथ ही उच्च गुणवत्ता की ऐसी एन्टीबॉडीज़ को अलग किया जाए जो वायरस को खत्म करने में मदद करें. इस परियोजना के तहत कोरोना वायरस के सम्भावित स्वरूप और उनको खत्म करने वाली एन्टीबॉडी क्लोन बनाए जाने की योजना है. महत्वपूर्ण है कि कोविड19 के इलाज में प्लाज़्मा थैरेपी भी कोरोनावायरस संक्रमण से ठीक हुए मरीज़ के रक्त प्लाज़्मा में मौजूद एन्टीबॉडी को ही आधार बनाती है.
भारत के वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद सीएसआईआर के महानिदेशक डॉ शेखर मांडे के मुताबिक नए कोरोना वायरस को जानने के लिए हमारा शोध शुरुआती दौरे में है और इसको लेकर हमारी जानकारी लगातार बढ़ रही है. ऐसे में सीएसआईआर हर ऐसे विचार का समर्थन कर रहा है जो क्रियान्वयन की सम्भवना रखते हैं.
गौरतलब है की बीते दिनों साइंस पत्रिका में प्रकाशित लेख पर टिप्पणी करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन की चीफ साइंटिस्ट डॉ सौम्या विश्वनाथन ने भी कहा था कि मोनोक्लोनल एन्टीबॉडी के जरिए कोरोना वायरस के उपचार और रोकथाम की सम्भवना है. ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन उन वैगनिकों के साथ मिलकर काम करने को तैयार है जो इन्हें विकसित कर रहे हैं ताकि मोनोक्लोनल एन्टीबॉडीज़ को किफायती तौर पर सबको उपलब्ध कराया जा सके.
गौरतलब है कि 1890 में फिजियोलॉजिस्ट एमिली वोन बेहरिंग ने इसकी खोज की थी कि ठीक होने वाली रोगी के रक्त से उपचार सम्भव है. सबसे पहले इसका इस्तेमाल डिप्थीरिया बीमारी के इलाज के लिए किया गया था.एक शताब्दी बाद भी इस उपचार पद्धति से नोवल कोरोना वायरस के इलाज की संभावना तलाशी जा रही है.