नई दिल्ली. अयोध्या-बाबरी विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ मुस्लिम पक्ष ने शुक्रवार को रिव्यू पिटीशन दाखिल कर दी। रिव्यू पिटीशन दायर करने की मियाद खत्म होने के आखिरी दिन यह पिटीशन सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राजीव धवन के नेतृत्व में दाखिल की गई। 70 पेज की पिटीशन में कहा गया है कि मुस्लिम पक्ष देश में शांति और सद्भाव का हमेशा पक्षधर रहा है, लेकिन अयोध्या मामले में वह आपसे न्याय चाहता है।
पिटीशन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक पैरा में जो सही माना जा रहा है, वही दूसरे किसी पैरा में गलत माना जा रहा है। कहीं कोर्ट मुस्लिमों का कब्जा मान रहा है, तो कहीं उसे नहीं मान रहा है। मुस्लिम पक्ष की प्रॉपर्टी को हिंसा और अन्यायपूर्ण तरीके से छीन लिया गया था, इसमें हम न्याय चाहते हैं।
राजीव धवन के साथ ये वकील रहेंगे
जफरयाब जिलानी, शकील अहमद सैयद, मो परवेज डबास, उज्मी जमील हुसैन, दानिश अहमद सैयद।
पिटीशन के मुख्य बिंदू
- सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में माना कि 1992 में मस्जिद को ढहाया गया था। इससे स्पष्ट है कि वह मुस्लिमों की नमाज पढ़ने की जगह थी।
- निर्माेही अखाड़े का 1950 के पहले मूर्ति पूजा का क्लेम कोर्ट ने खारिज कर दिया। फिर हिंदू विवादित जमीन पर क्या करने जाते थे, क्योंकि हिंदुओं में तो मूर्तिपूजा होती है। हिंदू कानून में किसी को आब्जेक्ट मानकर पूजा होती है।
- पहले जमीन की बात थी, फिर देवता की बात कहां से आ गई? हिंदू धर्म में चोरी से दूसरे की जगह पर रखी गई मूर्ति को कैसे देवता माना जा सकता है?
- ऐसे मामलों में अनुच्छेद 142 का उपयोग जायज है, जहां सरकार कोर्ट के आदेश का पालन न करवा सके। अयोध्या मामले में अनुच्छेद 142 का उपयोग गलत है। ये केस तो पूरा फैक्ट पर था। सुप्रीम कोर्ट खुद ही मान रहा है कि 1949 में मूर्ति रखी गई। 1858 से यहां मस्जिद थी और नमाज पढ़ी जाती थी।
- बाबर के विध्वंस कर मस्जिद बनाने की घटना का कोई सबूत नहीं है। कोर्ट ने माना ही नहीं कि बाबर ने विध्वंस किया था।
- कोर्ट मस्जिद तो मान रहा है, लेकिन ये नहीं मान रहा कि उसका उपयोगकर्ता कौन था? जब मस्जिद है तो उसका उपयोगकर्ता तो मुसलमान ही होगा न। मस्जिद का उपयोगकर्ता दूसरा कैसे हो गया।
- क्या ऐसी मूर्ति जिसकी प्राण प्रतिष्ठा न हुई हो और जबरदस्ती रखी गई हो, वह कैसे देवता हो सकती है? ये कोर्ट में अभी भी तय नहीं हुआ है। कोर्ट को इसका कारण बताना चाहिए।
- कोर्ट ने माना है कि मस्जिद थी। अगर मस्जिद थी तो कभी तो नमाज पढ़ी ही गई होगी। नमाज पढ़ने के सबूत नहीं हैं तो मस्जिद में और क्या होता होगा। जब मुगल शासन रहा है तो मुस्लिमों को किसने नवाज पढ़ने से रोका होगा? यानी मस्जिद की जमीन पर हमारा हक होना चाहिए।
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में 3 और रिव्यू पिटीशन दाखिल
अयोध्या मामले पर शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में कुल 4 अलग-अलग याचिकाएं दाखिल की गईं। मौलाना मुफ्ती हस्बुल्ला, मोहम्मद उमर, मौलाना महफूजुर रहमान और मिशबहुद्दीन ने चार अलग-अलग याचिकाएं दाखिल कीं। ये सभी लोग पहले चले मुकदमे में पक्षकार थे।
2 दिसंबर को कोर्ट में पहली रिव्यू पिटीशन दाखिल की गई
2 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में मूल याचिकाकर्ता एम सिद्दीक के कानूनी उत्तराधिकारी मौलाना सैयद अशद रशीदी ने पहली समीक्षा याचिका दाखिल की थी। इस याचिका में कहा गया था कि इस मामले में ‘पूरा न्याय’ बाबरी मस्जिद को दोबारा बनाने का आदेश देने से ही हो सकता है। सभी याचिकाओं में अदालत के 9 नवंबर को दिए गए फैसले की समीक्षा की अपील की गई है। अदालत ने अपने फैसले में विवादित जमीन पर राम मंदिर निर्माण के पक्ष में फैसला दिया था।