अयोध्या विवादः विवादित जगह में साल 1949 में नजर बचाकर रखी गईं मूर्तियां, मुस्लिम पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट को बताया

धवन ने कहा कि हिंदुओं ने मुसलमानों को इबादत की इजाजत नहीं दी और मुसलमानों ने 1934 के बाद से कभी ‘नमाज’ अदा नहीं की.

नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट में चल रही अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्षकारों ने मंगलवार को बड़ा दावा किया. उन्होंने कहा कि 22-23 दिसंबर की दरम्यानी रात अयोध्या में बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियां रखने के लिए ‘सुनियोजित’ और ‘नजर बचा के हमला’ किया गया. इस काम में कुछ अधिकारियों की हिंदुओं के साथ मिलीभगत थी और उन्होंने प्रतिमाओं को हटाने से इनकार कर दिया.

 

चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में 18वें दिन सुनवाई की. इस दौरान मुस्लिम पक्ष के वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने पीठ को बताया कि फैजाबाद के तत्कालीन उपायुक्त केके नायर ने साफ निर्देश के बावजूद मूर्तियों को हटाने की इजाजत नहीं दी.

 

सुनियोजित तरीके से रखी गई थी मूर्तियां

 

धवन ने पीठ को बताया, ”बाबरी के अंदर देवी-देवताओं की प्रतिमा का प्रकट होना चमत्कार नहीं था. 22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात उन्हें रखने के लिये सुनियोजित तरीके से और गुपचुप हमला किया गया.” पीठ में न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, डी वाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और एस ए नजीर भी शामिल हैं.

 

सुन्नी वक्फ बोर्ड और मूल वादियों में से एक एम सिद्दीक का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील ने दावा किया कि उन्हें ‘अंदर की कहानी’ पता थी और कहा कि नायर ने बाद में भारतीय जन संघ के उम्मीदवार के तौर पर लोकसभा चुनाव लड़ा था.

 

सुनवाई के दौरान क्या कहा वकील धवन ने

 

धवन ने कहा कि नायर ने 16 दिसंबर 1949 में राज्य के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर कहा था कि बाबर द्वारा 1528 में ध्वस्त किये जाने से पहले वहां विक्रमादित्य द्वारा बनाया गया एक भव्य मंदिर था. उन्होंने कहा, ”यह श्रीमान नायर का योगदान था.”

 

उन्होंने हिंदू पक्षकारों की ओर से पेश की गईं विवादित स्थल के अंदरुनी हिस्सों की तस्वीरों का हवाला देते हुए आरोप लगाया कि नायर समेत सरकारी अधिारियों ने स्थल पर ‘यथास्थिति’ बनाए रखने के आदेश का उल्लंघन तस्वीरें खींचे जाने की इजाजत देकर किया. अंदर प्रतिमाएं रखे जाने के बाद पांच जनवरी 1950 को इस संपत्ति को कुर्क कर दिया गया था. पीठ ने टिप्पणी की, ”इनका (तस्वीरों का) मामले पर कोई प्रभाव नहीं है.”

 

धवन ने कहा, ”निश्चित रूप से उनका प्रभाव है. क्योंकि उनका इस्तेमाल यह कहने के लिये किया गया कि इसे मंदिर की तरह देखा जाए.” उन्होंने कहा कि इन तस्वीरों में कथित रूप से देवी, देवताओं, कमल और मोर के रेखाचित्र हैं और हिंदुओं ने इसका इस्तेमाल किया.

 

‘न तो किसी ने पूजा की न हीं किसी ने इबादत’

 

धवन ने कहा कि हिंदुओं ने मुसलमानों को इबादत की इजाजत नहीं दी और मुसलमानों ने 1934 के बाद से कभी ‘नमाज’ अदा नहीं की. उन्होंने कहा, “वे कहते थे कि परिसीमा कानून और प्रतिकूल कब्जे का सिद्धांत आपके खिलाफ जाता है क्योंकि हम आपको अधिकार और इबादत की इजाजत नहीं देते.” उन्होंने इसके साथ ही उस प्रतिवेदन का भी जवाब दिया कि मुसलमानों का कब्जा नहीं था और वे कभी भी नियमित रूप से यहां नमाज नहीं अदा करते थे.

 

पीठ ने पूछा, “तथ्यात्मक रूप से क्या मुसलमानों द्वारा कोई कार्रवाई की गई थी.” धवन ने कहा कि मुसलमानों ने वक्फ निरीक्षक से इसकी शिकायत की थी. स्थल की चाभी मुस्लिम पक्ष के पास थी और वे नमाज अदा करने के लिये अंदर नहीं जा सकते थे क्योंकि 1950 की कुर्की के बाद उस पर ताला लगा था और पुलिस उन्हें अंदर नहीं जाने देती थी तथा वे डरे हुए थे. इस पर पीठ ने पूछा कि क्या उस गवाह जिसने आरोप लगाया था कि मुसलमानों को अंदर जाने की इजाजत नहीं थी, उससे जिरह हुई थी. उन्होंने कहा, “हम सिर्फ गवाह के बयान की सत्यता पर निर्भर हैं.”

 

 

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