उत्तराखंड का 20वां स्थापना दिवस : मैं बे-पनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं
इन 20 वर्षों में राज्य के सैकड़ों गांवों खाली हो चुके हैं. पृथक राज्य बनने के बाद तकरीबन 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं. सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं.
अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर कई वर्षों तक चले आंदोलन के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड को 27वें राज्य के रूप में स्वीकृति मिली वह भी अथक संघर्ष और बलिदान के बाद. पहाड़ के लोगों की आकांक्षाओं व सपनों का यह राज्य राजनीतिक दृष्टि से बदलावकारी तो रहा लेकिन जन उम्मीदों पर बहुत खरा नहीं उतरा.
हांफते हुए जवानी की दहलीज तक पहुंचा यह राज्य 20 वर्षों में 11 मुख्यमंत्रियों को देख चुका है. यहां सदन में पहुंचा हर नेता एक ही दौड़ में होता है, वह दौड़ होती है- मुख्यमंत्री की कुर्सी की दौड़. वैसे भी देश के किसी अन्य राज्य को 20 वर्षों में11 मुख्यमंत्री देखने का सौभाग्य तो नहीं ही मिला होगा. इस मामले में उत्तराखंड और वहां की जनता स्वयं पर गर्व कर सकती है.
वैसे भी जब नेताओं की दीठ दिल्ली और पीठ पहाड़ की तरफ होगी तो राजधानी पहाड़ों में कैसे हो सकती है. हर सरकार जब विपक्ष में होती है तभी राजधानी का सवाल उठाती है. यह सवाल 20 वर्षों के बाद भी सवाल ही है. बेरोजगारी, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधनों को लेकर सरकारों की नीतियों पर किए गए सवाल भी 20 वर्षों में गाढ़े ही हुए हैं. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 22.3% है. पलायन का एक बड़ा कारण भी बेरोजगारी ही है.
इन 20 वर्षों में राज्य के सैकड़ों गांवों खाली हो चुके हैं. पृथक राज्य बनने के बाद तकरीबन 32 लाख लोग पलायन कर चुके हैं. सरकारी पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 1702 गांव भुतहा हो चुके हैं. मतलब एकदम खाली हो चुके हैं और तक़रीबन 1000 गांव ऐसे हैं जहां 100 से कम लोग बचे हैं.पलायन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 50% लोग रोजगार के कारण, 15% शिक्षा के चलते और 8% लचर स्वास्थ्य सुविधा की वजह से पलायन करने को मजबूर हुए. शिक्षा का हाल यह है कि कई गांवों में तो 20- 20 किलोमीटर तक कोई स्कूल ही नहीं है. कहीं स्कूल है तो शिक्षक नहीं हैं. पिछले वर्षों में सरकार ने कई सारे स्कूल बंद भी किए.
शिक्षा की स्थिति आज भी 20 वर्ष पुरानी जैसी ही है. चिकित्सा सुविधाओं के मामले में तो राज्य का हाल ही खस्ता है. एक तरफ जहां 30 से 40 किलोमीटर तक कोई सरकारी हॉस्पिटल नहीं है तो वहीं सुविधा के लिहाज से तहसील तक में बने सरकारी हॉस्पिटल में अल्ट्रासाउंड की मशीन और अन्य जांच के उपकरण तक नहीं हैं. अल्मोड़ा जिले के ही 83 गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है.आज भी इलाज के लिए दिल्ली ही आना पड़ता है. प्राकृतिक संसाधनों की लूट के मामले में तो इस राज्य का कोई मुकाबला है ही नहीं. सरकारी तंत्र और भू-माफिया के गठजोड़ ने पूरे पहाड़ को फोड़ डाला है.सड़कों की माया में लाखों पेड़ काट डाले गए हैं. खनन माफियाओं ने नदियों को खत्म कर दिया है. यह सब 20वर्षों की अदला-बदली की सरकारों की देन ही है. यह 20 वर्षों की वह तस्वीर है जो स्थापना दिवस की चकाचौंध में कहीं नजर नहीं आएगी. वहां नजर आएगी तो बस फाइलों में दर्ज विकास की इबारतें जो कभी जनता तक पहुंच ही नहीं पाई. अदम गोंडवी ने लिखा-“तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है/ मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है” वास्तविकता भी यही है.
एक तरफ जहां पहाड़ के गाड, गध्यर, नौले सूखे और गांव के गांव उजड़े तो वहीं दूसरी तरफ बड़े-बड़े महल बने, पानी पर बांध बने और विधायक- मंत्री व मुख्यमंत्री बने. इसलिए उत्तराखंड को जब देखना व समझना हो तो उसे देहरादून और ऋषिकेश से न देखा और न समझा जा सकता है. उसकी इन 20 वर्षों की यात्रा को भी पहाड़ की उन महिलाओं की नजर से देखना होगा जो, चिपको आंदोलन में जंगल को अपना मायका बताती हैं और कुल्हाड़े के आगे आ खड़ी होती हैं. शराब के खिलाफ आंदोलन में बाजार के बाजार बंद करा देती हैं और शराब माफियाओं के सामने दरांती ताने निडर खड़ी हो जाती हैं. पृथक राज्य आंदोलन में गोठ-गुठ्यार छोड़ दिल्ली तक हुंकारा भरने के लिए चल पड़ती हैं. उनकी आंखों से भी इसे देखना होगा. तभी उन सपनों को भी समझा जा सकता है जो अलग राज्य की मांग और संकल्पना के साथ जुड़े हुए थे लेकिन वह सपने अब धुंधले हो चुके हैं. वह आंखें आशावान तो हैं लेकिन उम्मीद हारती जा रही हैं.अऐसे में GDP, बजट, सडक आदि से पहाड़ को कैसे समझा जा सकता है.
विकास का यह रेडीमेड मॉडल जिसमें सड़क, शहर और सीमेंट है वह कैसे पहाड़ों में फिट हो सकता है ? क्या यही पहाड़ की जरूरतें हैं? या फिर इन 20 वर्षों में हमारे नीति निर्माता पहाड़ की जरूरतों को समझ ही नहीं पाए. पर्यटन की असीम संभावनाओं के बावजूद इस दिशा में सरकारों की अकर्मण्यता तारीफे-काबिल है. ऐसी स्थिति में कैसे जश्न मनाया जा सकता है. आखिर इन 20 वर्षों में सिवाय सरकारों के क्या बदला है ! फिर भी राज्य स्थापना दिवस की बधाई देते हुए दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मुझे मौजू लगती हैं- मैं बे-पनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं / मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं.
ब्लॉगर के बारे में
प्रकाश उप्रेती
उत्तराखंड के खोपड़ा गाँव में जन्म। पहाड़, दिल्ली होते हुए वर्धा से पढ़ाई-लिखाई। हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं व अखबारों में लेखन। पहाड़ों में विशेष रुचि। मिजाज़ से घुमक्कड़, पेशे से अध्यापक। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में तदर्थ अध्यापक के तौर पर अध्यापन कार्य।
एक शताब्दी से अधिक लम्बे संघर्ष से नसीब हुआ उत्तराखंड राज्य
-सर्वप्रथम 1897 में इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया के समक्ष रखी गई थी कुमाऊं को प्रांत का दर्जा देने की मांग नवीन जोशी, नैनीताल। नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य में पृथक राज्य की मांग एक सदी से भी अधिक पुरानी थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार सर्वप्रथम जून 1897 में रानी विक्टोरिया को शर्तें याद दिलाते हुए तत्कालीन ब्रिटिश कुमाऊं (जिसमें प्रदेश के वर्तमान गढ़वाल मंडल का भी अलकनंदा नदी के पूर्वी ओर का पूरा सहित तत्कालीन टिहरी रियासत को छोड़कर अधिकांश क्षेत्र शामिल था) को अलग प्रान्त के रूप में रखने को प्रत्यावेदन भेजा गया था। हरी दत्त पांडे, ज्याला दत्त जोशी, रायबहादुर बद्री दत्त जोशी, रायबहादुर दुर्गा दत्त जोशी (जज) व गोपाल दत्त जोशी द्वारा इंग्लेंड की महारानी विक्टोरिया को भेजे गए पत्र में कहा गया था कि अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को जीता नहीं था, वरन 1815 में स्वयं अपनी मर्जी से अपने आप को ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण में रखा था, इसलिए उनकी वफादारी के बदले उनकी मातृभूमि को अलग प्रांत का दर्जा दें।आगे दूूसरा प्रयास 1916 में उत्तराखंड की प्रथम संस्था-कुमाऊं परिषद के गठन के रूप में हुआ। इसके बाद तीसरा प्रयास सात नवंबर 1929 को हुआ, जब राजा आनंद सिंह, त्रिलोक सिंह रौतेला, ठाकुर जंग बहादुर बिष्ट, एफ रिच, डेनियल पंत, गोविंद लाल साह, नित्यानंद जोशी, खुशाल सिंह, उत्तम सिंह रावत व हाजी नियाज मोहम्मद आदि कई लोगों ने तत्कालीन संयुक्त प्रांत के गवर्नर से भेंट कर ज्ञापन सोंपा और कुमाऊं के प्राचीन समय से एक पृथक इकाई होने और उसे विशेषाधिकार मिले होने का हवाला देते हुए पृथक राजनीतिक इकाई के रूप में मान्यता देने, ब्रिटिश संसद के लिए कुमाउनी प्रतिनिधियों को सम्मिलित कर उन्हें अलग संविधान देने के लिए एक समिति का गठन करने आदि की मांगें कीं। इस पर गवर्नर ने उन्हें साइमन कमीशन के समक्ष अपना पक्ष रखने की सलाह दी।
आगे 1938 में प्रदेश के गढ़वाल मंडल की ओर के बुद्धिजीवियों की ओर से भी यह मांग उठनी शुरू हुई। इसी साल 5-6 मई को कांग्रेस के श्रीनगर सम्मेलन में पृथक प्रशासनिक व्यवस्था की मांग की गई। इस सम्मलेन में प्रताप सिह नेगी, जवाहर लाल नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित भी शामिल हुए थे। सम्मेलन में स्थानीय जनता की मांग को देखकर जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने का अधिकार मिलना चाहिए।’ वहीं आजादी मिलने की सुगबुगाहट के बीच तत्कालीन संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री गोविंद बल्लभ पंत (भारत रत्न) ने पहले 1946 में हल्द्वानी में हुए सम्मेलन में और आगे आजादी के बाद 1952 में जब राज्यों के पुर्नगठन के लिए पणिकर आयोग के अध्यक्ष केएम पणिकर ने उत्तराखंड राज्य की मांग का समर्थन किया था, किन्तु स्वर्गीय पंत ने पर्वतीय क्षेत्र में एक राज्य के लिए जरूरी संसाधनों व रोजगार के साधनों की कमी बताकर इस मांग को पूरी तरह खारिज कर दिया था।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इंद्र सिंह नयाल ने इस तथ्य का जिक्र अपनी पुस्तक ‘स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊं का योगदान’ में किया है। आगे भाकपा के सचिव कॉमरेड पीसी जोशी ने 1952 में भारत सरकार को पृथक पर्वतीय राज्य के गठन के लिए एक ज्ञापन भेजकर यह मांग प्रमुखता से उठाई थी। इसके साथ ही यह मांग मुखर होने लगी थी। पेशावर कांड के नायक और स्वतंत्रता सेनानी चंद्र सिह गढ़वाली ने भी पीएम जवाहर लाल नेहरू को राज्य की मांग का ज्ञापन दिया। 22 मई 1955 को नई दिल्ली में पर्वतीय जन विकास समिति की आम सभा में उत्तराखंड क्षेत्र को प्रस्तावित हिमाचल में मिलाने की मांग की।
1956 में पृथक हिमाचल बनाने की राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा ठुकराने के बाद भी तत्कालीन गृह मंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त ने अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर हिमाचल की मांग को सिद्धांत रूप में स्वीकार किया, किंतु उत्तराखंड के बारे में कुछ नहीं किया। इस पर अगस्त 1966 में पर्वतीय क्षेत्र के लोगों ने पुनः पीएम को अलग राज्य की मांग का ज्ञापन भेजा। 10-11 जून 1966 को जगमोहन सिंह नेगी एवं चंद्रभानु गुप्त की अगुवाई में रामनगर में आयोजित कांग्रेस के सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए पृथक प्रशासनिक आयोग का प्रस्ताव केंद्र को भेजा गया, तथा 24-25 जून को नैनीताल में दयाकृष्ण पांडेय की अध्यक्षता में ऋषिबल्लभ सुन्दरियाल, गोविंद सिंह मेहरा आदि को शामिल करते हुए आठ पर्वतीय जिलों की ‘पर्वतीय राज्य परिषद’ का गठन किया गया। इसी वर्ष दिल्ली के बोट क्लब में इस मांग के लिए ऋषि बल्लभ सुंदरियाल ने प्रवासी उत्तराखंडियों को साथ लेकर प्रदर्शन किया। इसी वर्ष 14-15 अक्टूबर को दिल्ली में उत्तराखंड विकास संगोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसका उदघाटन तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अशोक मेहता ने किया। इसमें सांसद एवं टिहरी नरेश मानवेंद्र शाह ने इस क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए केंद्र शासित प्रदेश की मांग की।
1968 में लोकसभा में सांसद शाह के प्रस्ताव के आधार पर योजना आयोग ने पर्वतीय नियोजन प्रकोष्ठ खोला। 12 मई 1970 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्वतीय क्षेत्र की समस्याओं का निदान प्राथमिकता से करने की घोषणा की। 1971 में मानवेंद्र शाह, नरेंद्र सिंह बिष्ट, इंद्रमणि बड़ोनी और लक्ष्मण सिंह ने अलग राज्य के लिए कई जगह आंदोलन किए। 1972 में ऋषिबल्लभ सुंदरियाल व पूरन सिंह डंगवाल सहित 21 लोगों ने अलग राज्य की मांग को लेकर वोट क्लब पर गिरफ्तारी दी। 23-24 अक्टूबर 1971 को प्रताप बिष्ट ने उत्तराखंडवासियों से आजादी के लिए दी गई जीवन की कुर्बानी की तर्ज पर आर्थिक आजादी के लिए कुर्बानी देने का आह्वान किया। 1973 में ‘पर्वतीय राज्य परिषद’ का नाम ‘उत्तराखंड राज्य परिषद’ किया गया। सांसद प्रताप सिंह बिष्ट इसके अध्यक्ष तथा मोहन उप्रेती व नारायण सुंदरियाल इसके सदस्य बने। 1978 में चमोली के विधायक प्रताप सिंह की अगुवाई में बदरीनाथ से दिल्ली वोट क्लब तक पदयात्रा और संसद का घेराव का प्रयास किया गया। दिसंबर 1978 में राष्ट्रपति को ज्ञापन देते समय 19 महिलाओं सहित 71 लोगों को तिहाड़ भेजा गया। 1979 में सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में उत्तराखंड राज्य परिषद का गठन करके 31 जनवरी को दिल्ली में 15 हजार से भी अधिक लोगों ने पृथक राज्य के लिये मार्च किया। आगे 24-25 जुलाई 1979 में 24-15 जुलाई 1979 को मंसूरी में ‘पर्वतीय जन विकास सम्मेलन’ में इसी मांग पर प्रदेश के पहले क्षेत्रीय दल-उत्तराखंड क्रांति दल का जन्म हुआ। 1980 में यूकेडी ने घोषणा की कि उत्तराखंड भारतीय संघ का एक शोषण विहीन, वर्ग विहीन और धर्म निरपेक्ष राज्य होगा। मई 1982 में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने बद्रीनाथ मे यूकेडी के प्रतिनिधि मंडल के साथ 45 मिनट बातचीत की। 20 जून 1983 को दिल्ली में चौधरी चरण सिंह ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उत्तराखंड की मांग राष्ट्र हित में नही है। सितंबर-अक्टूबर 1984 में आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन ने पर्वतीय राज्य के मांग को लेकर गढ़वाल क्षेत्र में 900 किमी. साइकिल यात्रा की। 23 अप्रैल को उक्रांद ने तत्कालीन पीएम राजीव गांधी के नैनीताल आगमन पर पृथक राज्य के समर्थन में प्रदर्शन किया। 1987 में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अटल विहारी वाजपेयी ने उत्तराखण्ड राज्य की मांग को पृथकतावादी करार दिया। नौ अगस्त को वोट क्लब पर अखिल भारतीय प्रवासी उक्रांद ने सांकेतिक भूख हड़ताल की और पीएम को ज्ञापन दिया। 23 नवंबर को युवा नेता धीरेंद्र प्रताप भदोला ने लोकसभा में दर्शक दीर्घा में राज्य निर्माण के समर्थन में नारेबाजी की। 23 फरवरी 1988 को अनेक लोगों ने असहयोग आंदोलन किया और गिरफ्तारियां दी। 21 जून को अल्मोड़ा में ‘नए भारत में नया उत्तराखंड’ नारे के साथ ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन हुआ। 23 अक्टूबर को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में हिमालयन कार रैली का उत्तराखंड समर्थकों ने विरोध किया, जिस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया। 17 नवंबर को पिथौरागढ़ में नारायण आश्रम से देहारादून तक पैदल यात्रा हुई। 1989 में यूपी के सीएम मुलायम सिह यादव ने उत्तराखंड को यूपी का ताज बता कर अलग राज्य बनाने से इंकार किया। लेकिन अलग राज्य के लिए दबाव बनता देख 10 अप्रैल 1990 को दिल्ली के वोट क्लब पर उत्तरांचल प्रदेश संघर्ष समिति के तत्वावधान में भाजपा ने उत्तराखण्ड के समर्थन में रैली की, और 30 अगस्त 1991 को कांग्रेस नेताओं ने ‘वृहद उत्तराखंड’ राज्य बनाने का नया शिगूफा छोड़ा। इसी साल यूपी की भाजपा सरकार ने पृथक राज्य संबंधी प्रस्ताव संस्तुति के साथ केंद्र को भेजा तो भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी पृथक राज्य का वायदा किया। इसी साल दिसंबर 1991 में एनडी तिवारी ने राज्य की मांग का विरोध करते हुए कथित तौर पर कहा कि ‘उत्तराखण्ड उनकी लाश पर बनेगा’।
इधर भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के उत्तर प्रदेश सम्मेलन में राज्य की मांग का समर्थन किया गया। सम्मेलन की समाप्ति पर सांसद डा. जयन्त रैंगती ने कहा ‘छोटे और कमजोर समूहों को राजनैतिक सत्ता में भागीदार बनाने का काम कभी पूरा नहीं किया गया’। इसी दौरान यूपी की भाजपानीत कल्याण सिंह सरकार ने केंद्र सरकार को याद दिलाया कि राज्य की मांग स्वीकार न होने से कारण पर्वतीय क्षेत्र की जनता में असंतोष पनप रहा है। मार्च 1992 में एनडी तिवारी ने राज्य का पुनः विरोध किया। 27 मार्च 1992 को मुक्ति मोर्चा ने बंद का आहवान किया और 30 अप्रैल को उत्तरांचल संघर्ष समिति ने जंतर मंतर पर रैली निकाली। पांच अगस्त 1993 को लोकसभा में उत्तराखंड राज्य के मुद्दे पर मतदान हुआ तो 98 सदस्यों ने पक्ष में और 152 ने विपक्ष में मतदान किया। 23 नवंबर 1993 को ‘उत्तराखण्ड जनमोर्चा’ का गठन हुआ। इसमें जगदीश नेगी, देब सिंह रावत, राजपाल बिष्ट व बीडी थपलियाल आदि शामिल थे। 1993 में हुए यूपी विधानसभा के मध्यावधि चुनावों में विजयी हुए मुलायम सिंह यादव ने पृथक उत्तराखंड की मांग को जायज बताते हुए 21 जून को अपने मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में उत्तराखंड राज्य गठन का खाका खींचने के लिए एक उपसमिति गठित की, जिसने पांच मई 1994 को पेश की गई अपनी 356 पेज की रिपोर्ट में आठ पर्वतीय जनपदों को मिलाकर एक पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने और गैरसेंण को प्रस्तावित उत्तराखंड प्रदेश की राजधानी के रूप में प्रस्तुत किया। 24 अप्रैल 1994 को दिल्ली के पूर्व निगमायुक्त बहादुर राम टम्टा के नेतृत्व में रामलीला मैदान से संसद मार्ग थाने तक विशाल प्रदर्शन किया गया। किंतु इसी बीच मुलायम सरकार द्वारा 11 दिसंबर 1993 को शासकीय सेवाओं में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों के लिए 27 फीसद आरक्षण देने की व्यवस्था लागू करने का उत्तराखंड में इस आधार पर भारी विरोध हुआ कि यहां इन जातियों की आबादी मात्र डेढ़ फीसद थी। इस आंदोलन ने निरंतर व्यापक होते हुए आगे निर्णायक उत्तराखंड आंदोलन का स्वरूप ग्रहण किया, और इसके परिणामस्वरूप 22 जून 1994 को मुलायम सरकार ने उत्तराखंड के लिए अतिरिक्त मुख्य सचिव नियुक्त करने की घोषणा की। 11 जुलाई को पौड़ी में उक्रांद ने प्रदर्शन करके 791 लोगों की गिरफ्तारी दी। दो अगस्त को पौड़ी में वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बड़ोनी के नेतृत्व में आमरण अनशन शुरु किया गया। 7-8 और नौ अगस्त को पुलिस का लाठी चार्ज के साथ ही पूरे उत्तराखंड में प्रखर राज्य जनांदोलन का बिगुल बज गया।
10 अगस्त को श्रीनगर में ‘उत्तराखण्ड छात्र संघर्ष समिति’ का गठन हुआ और 16 अगस्त को संसद एवं जंतर-मंतर पर आंदोलनकारी संगठनों का धरना शुरू हुआ, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तमाम आंदोलनकारी संगठन जुड़े। 24 अगस्त-94 को यूपी विधानसभा में दूसरी बार अलग राज्य का प्रस्ताव पारित हुआ। इसी बीच छात्र नेता मोहन पाठक और मनमोहन तिवारी ने राज्य के समर्थन में नारेबाजी करते हुए संसद में छलांग लगाई। 30 अगस्त को पूरे देश से आए हजारों उत्तराखंडियों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया।, जिस पर पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े। दो सितंबर 1994 को खटीमा में जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की, यह उत्तराखण्ड आंदोलन का पहला गोलीकांड था। इसमें आठ आंदोलनकारी शहीद हुए, और हल्द्वानी और खटीमा में कर्फ्यू लगा। दो सितंबर को मसूरी में आंदोलनकारियों पर पुलिसिया कहर बरपा, जिसमें पुलिस उपाधीक्षक सहित आठ आंदोलनकारी शहीद हो गए। इसके विरोध में दिल्ली सहित पूरे देश में भारी आक्रोश फैल गया। आठ सितंबर को छात्रों के आहवान पर 48 घंटे उत्तराखंड बंद रहा। 20 सितंबर को ‘पर्वतीय कर्मचारी शिक्षक संगठन’ के बैनर तले राज्य कर्मचारी बेमियादी हड़ताल पर चले गए। दो अक्टूबर 1994 को लाल किले के पीछे के मैदान में आयोजित रैली के लिए लाखों उत्तराखंडी शांतिपूर्वक दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे। यूपी पुलिस ने इस दौरान मुजफ्फरनगर व रामपुर तिराहा में महिलाओं के साथ हुए अमानवीय दुर्व्यवहार किया। यहां आठ आंदोलनकारी शहीद हुए, जबकि कई महिलाओं की अस्मत लूटी गई। पुलिस की बर्बरता से समूचे उत्तराखंड में व्यापक आक्रोश फैल गया। घिनौनी करतूत पर शर्मिंदा होने की बजाय यूपी पुलिस ने फिर तांडव किया। देहरादून और कोटद्वार मे दो-दो और नैनीताल में एक आंदोलनकारी प्रताप सिंह शहीद हुए।
उधर 13 अक्टूबर को आंदोलन के चलते देहरादून में कर्फ्यू लगा दिया गया। यहीं पर एक और आंदोलनकारी ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। अक्टूबर में सतपाल महाराज ने ’संयुक्त संघर्ष समिति’ के संरक्षक के रूप में बद्रीनाथ से नारसन तक जनजागरण पदयात्रा की। सात दिसंबर को बीसी खंडूड़ी के नेतृत्व में लाल किला मैदान पर भाजपा की रैली में अटल विहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती व कल्याण सिंह आदि ने भी शिरकत की। उत्तराखंड आंदोलन संचालन समिति के आहवान पर संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जेल भरो आंदोलन में 4612 लोगों ने गिरफ्तारी दी। 22 दिसंबर को हड़ताली कर्मचारी ‘काम के साथ संघर्ष’ का नारा देते हुए काम पर लौटे, जबकि छात्रों ने ‘पढाई के साथ लड़ाई’ का नारा बुलंद किया। 25 फरवरी 1995 को प्रमुख आंदोलनकारी संगठनों का दो दिवसीय प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन जवाहरलाल नेहरू विवि के सिटी सेंटर में डा. कर्ण सिंह के उदघाटन संबोधन के साथ शुरू हुआ। 23 मार्च को शहीद भगत सिंह आजाद के शहादत दिवस पर ले.जन. गजेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में पूर्व सैन्य अधिकारियों व पूर्व सैनिकों ने अन्य आंदोलनकारियों के साथ मिलकर विशाल प्रदर्शन किया।पृथक राज्य आंदोलन में महिलाओं की भी रही प्रमुख भूमिका
नैनीताल। पृथक राज्य आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर विस्तृत शोध करने वाली कुमाऊं विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डा. सावित्री कैड़ा जंतवाल बताती हैं कि उत्तराखंड आंदोलन के दौरान पुलिस के दमन का शिकार होने वाली पहली महिला के रूप में आंदोलनकारी जगदंबा देवी रतूड़ी का नाम आता है, जिन्हें दो अगस्त 1994 को पौड़ी में आमरण अनशन पर बैठे वयोवृद्ध नेता इंद्रमणि बड़ोनी व उनके साथियों के साथ हुए संघर्ष का विरोध करने पर पुलिस कर्मी द्वारा सड़क पर गिराकर जमकर मारा-पीटा गया। देहरादून में सुशीला बलूनी कचहरी परिसर में अनशन पर बैठी, उधर कमला पंत ने प्रगतिशील महिला मंच के द्वारा अन्य महिलाओं के साथ मिल कर एक नारा प्रचलित किया, “आरक्षण का एक इलाज-पृथक राज्य पृथक राज्य”। इस दौरान पुष्पा चौहान सहित कई अन्य महिला आंदोलनकारी को भी पीटा गया और बदसलूकी हुई। इस दौरान 17 अगस्त 1994 को अलग राज्य की मांग लेकर महिलाओं की पहली विशाल रैली निकली, जिस कारण पुष्पलता सिलमान, भुवनेश्वरी देवी, पार्वती नेगी, कमला पंत व निर्मला बिष्ट सहित डेढ़ दर्जन से अधिक महिला आंदोलकारी गिरफ्तार की गईं। इस घटना के विरोध में नैनीताल में 20 अगस्त को आमरण अनशन पर बैठे राज्य आंदोलनकारियों के समर्थन में नैनीताल में पहली बार कुंती वर्मा, देवकी चौनियाल, जानकी देवी व भगवती वर्मा धरने पर बैठीं। उधर दो सितंबर 1994 को खटीमा में हुए प्रथम गोलीकांड के विरोध में मंसूरी में जुलूस निकालने के लिए हंसा धनाई और बेलमती चौहान शहीद हो गईं, जो उत्तराखंड आंदोलन में शहीद होने वाली प्रथम महिला आंदोलनकारी थीं। वहीं दो अक्टूबर 1994 को रात्रि में मुजफ्फरनगर व रामपुर तिराहा में दिल्ली कूच के दौरान अनेक महिला आंदोलनकारी पुलिस के क्रूर व अमानवीय दमनचक्र का शिकार हुईं, जबकि दर्जनों महिलाएं गिरफ्तार हुईं। आगे महिलाओं ने दिसंबर 1994 में राज्य आंदोलन में राज्य आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए डा. धनेश्वरी तोमर के संयोजकत्व में ‘उत्तराखंड महिला मंच’ का गठन किया।अंग्रेजों के आगमन (1815) से ही अपना अलग अस्तित्व तलाशने लगा था उत्तराखंड
नैनीताल। नौ नवंबर 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आए उत्तराखंड राज्य का गठन बहुत लंबे संघर्ष और बलिदानों के फलस्वरूप हुआ। क्षेत्रीय जनता ने अंग्रेजों को 1815 में सिगौली की संधि के साथ इसी शर्त के साथ अपनी जमीन पर पांव रखने दिये थे कि वह उनके परंपरागत कानूनों के साथ उन्हें अलग इकाई के रूप में रखेंगे। ब्रिटिश कुमाऊं के पहले कमिश्नर बने ई गार्डनर के बीच 27 अप्रैल 1815 को हुई सिगौली की संधि में इस भूभाग को अलग प्रशासनिक अधिकार दिये जाने की शर्त रखी गई थी, जिसे अलग पटवारी व्यवस्था जैसे कुछ प्रावधानों के साथ कुछ हद तक मानते हुए अंग्रेजी दौर से ही प्रशासनिक व्यवस्था उनके हक-हकूकों पर पाबंदी लगाती रही। इसी कारण कभी यहां विश्व को वनों के संरक्षण का संदेश देने वाला ‘मैती आंदोलन’ तो कभी देश को नया वन अधिनियम देने वाला ‘वनांदोलन’ लड़ा गया। सितम्बर 1916 में, बाद में स्वतंत्र भारत के दूसरे गृह मंत्री बने गोविन्द बल्लभ पंत, ‘कुमाऊं केसरी’ बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत, इंद्र लाल साह, मोहन सिंह दड़मवाल, चन्द्र लाल साह, प्रेम बल्लभ पांडे, भोला दत्त पांडे व लक्ष्मीदत्त शास्त्री आदि के द्वारा ‘कुमाऊं परिषद्’ की स्थापना की गई, जो कि 1926 में स्थानीय मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए कांग्रेस में समाहित हो गई। 27 नवम्बर 1923 को संयुक्त प्रांत के गवर्नर को ज्ञापन देकर पूर्व की तरह अलग इकाई बनाए रखने की मांग की। आगे वर्ष 1940 में कांग्रेस के हल्द्वानी सम्मेलन में बद्री दत्त पांडे ने पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊं-गढ़वाल को पृथक इकाई के रूप में गठन करने की मांगें रखीं। 1952 में सीपीआई नेता कामरेड पीसी जोशी ने अलग राज्य की मांग उठाई। 1954 में विधान परिषद के सदस्य इंद्र सिंह नयाल (वर्तमान कुमाऊं आयुक्त अवनेंद्र सिंह नयाल के पिता) ने यूपी के मुख्यमंत्री बने गोविंद बल्लभ पंत के समक्ष विधान परिषद में पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक विकास योजना बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसके फलस्वरूप 1955 में फजल अली आयोग ने पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य के रूप में गठित करने की संस्तुति की। वर्ष 1973 से यूपी में उत्तराखंडवासियों को कुछ दिलासा देने को पर्वतीय विकास विभाग का गठन कर दिया गया, लेकिन बात नहीं बनी। 24 जुलाई 1979 को पृथक राज्य के गठन के लिए मसूरी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के भौतिकी वैज्ञानिक एवं गांधीवादी विचारक कुमाऊं विवि के कुलपति डा. डीडी पंत की अगुवाई में हुई बुद्धिजीवियों की बैठक में उत्तराखंड क्रांति दल नाम से राजनीतिक दल का गठन किया गया। नवम्बर 1987 में पृथक राज्य के गठन के लिए नई दिल्ली में प्रदर्शन हुआ और राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजकर हरिद्वार को भी प्रस्तावित राज्य में सम्मिलित करने की मांग की गई। आगे 1994 में यूपी में अन्य पिछड़ी जातियों को 27 फीसद आरक्षण देने के विरोध में सुलगे आरक्षण आंदोलन की चिनगारी राज्य आंदोलन की मशाल बन उठी। इस आंदोलन के छह वर्ष बाद उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया।दो अक्टूबर का दिन जहां देश-दुनिया में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती के रूप में एवं दुनिया में ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, वहीं उत्तराखंड राज्य इससे इतर इस दिन को ‘काले दिन” के रूप में मनाता है। इस दिन से उत्तराखंड वासियों की बेहद काली व डरावनी यादें जुड़ी हुई हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान इस दिन छह आंदोलनकारी शहीद हुए थे, जबकि 60 से अधिक घायल हुए थे, और कई महिलाओं को अपनी अस्मत गंवानी पड़ी थी।उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान दो अक्टूबर 1994 को राज्य आंदोलनकारियों ने दिल्ली कूच का ऐलान किया था। लाल किले के पीछे स्थित पुराने किले के मैदान में राज्य आंदोलनकारियों को आमंत्रित किया गया था। सभा में केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राजेश पायलट सहित कई वरिष्ठ नेताओं के आने और सरकार की ओर से उत्तराखंड राज्य का गठन किए जाने की घोषणा होने की चर्चा थी। इसलिए पूरे प्रदेश से उत्तराखंडी बसों के जत्थों के जत्थों में एक अक्टूबर को रवाना हो गए थे। लेकिन यूपी की मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली सपा सरकार इससे खार खाई थी। उनकी कोशिश थी-उत्तराखंडी दिल्ली न पहुंच पाएं। इसी कोशिश में कुमाऊं से दिल्ली जा रहे आंदोलनकारियों को मुरादाबाद और गढ़वाल की ओर से आ रहे आंदोलनकारियों को मुजफ्फरनगर से पहले पड़ने वाले नारसन चौराहे व रामपुर तिराहे पर तलाशी के बहाने रोका गया। इसी दौरान यूपी की रक्षक कही जाने वाली पुलिस बेकाबू हो कर मानो भक्षक बन गई और फिर वह हुआ, जिसे उत्तराखंड के इतिहास में सबसे काले दिन और जलियावाला कांड की संज्ञा दी जाती है। इस घटना में देहरादून के नेहरू कालोनी के रविंद्र रावत उर्फ पोलू, भाववाला के सतेंद्र चौहान, बद्रीपुर निवासी गिरीश भद्री, अजबपुर निवासी राजेश लखेड़ा, ऋषिकेश के सूर्यप्रकाश थपलियाल और उखीमठ रुद्रप्रयाग निवासी अशोक केशिव शहीद हुए जबकि पांच दर्जन से अधिक लोग घायल हुए और अनेक महिलाओं की अस्मत पर हमला हुआ।