बाइडेन की जीत की 5 वजहें:कोरोना पर खुलकर सरकार के विरोध में आए, अपना मैसेज वोटर्स तक पहुंचाने में कामयाब रहे

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पॉलिटिक्स को जिंदगी के 50 साल देने वाले जो बाइडेन हमेशा अमेरिका का राष्ट्रपति बनने का सपना देखते रहे। उम्र के 77वें साल में उन्हें बतौर राष्ट्रपति व्हाइट हाउस की सीढ़ियां चढ़ने का मौका मिल रहा है। यह कोई ऐसा अभियान नहीं था, जिसकी किसी ने भविष्यवाणी की थी। उनकी यह कोशिश सदी की पहली महामारी और अमेरिकी समाज में अशांति के बीच जारी रही। वे ऐसे शख्स के साथ मुकाबले में थे, जो सारी परंपराएं तोड़ रहा था।

आखिर अपनी तीसरी कोशिश में बाइडेन और उनकी टीम ने राजनीतिक रुकावटों से पार पाने और जीत का दावा करने का रास्ता निकाल लिया। हम आपको वे 5 वजहें बता रहे हैं, जिनके चलते डेलावेयर में कार बेचने वाले का बेटा राष्ट्रपति चुनाव जीत गया।

कोरोना, कोरोना और कोरोना
बाइडेन की जीत का सबसे बड़ा कारण शायद ऐसा है, जिस पर किसी का काबू नहीं है। कोरोना वायरस से उपजी महामारी ने 2 लाख 30 हजार से ज्यादा जिंदगियां छीन लीं। इसने अमेरिकियों का जीवन और 2020 की राजनीति को भी बदल दिया। शुरुआत में नकारने के बाद चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में डोनाल्ड ट्रम्प खुद इस बात को मानने लगे थे।

ट्रम्प ने पिछले हफ्ते विस्कॉन्सिन में रैली की थी। यहां हाल के दिनों में नए केस काफी बढ़ गए हैं। रैली में ट्रम्प ने कहा कि फर्जी खबरों के साथ सब कुछ कोविड, कोविड, कोविड, कोविड है।

कोविड पर मीडिया का फोकस, इस महामारी के बारे में लोगों की चिंता का ही प्रतिबिंब था। वोटिंग में भी इसका असर नजर आया। पिछले महीने प्यू रिसर्च के पोल में बताया गया था कि बाइडेन के कोरोना से निपटने की योजना पर लोगों के भरोसे ने उन्हें ट्रम्प पर 17% पॉइंट की बढ़त दिला दी।

बाइडेन से साफ कहा कि ट्रम्प प्रशासन का महामारी से निपटने का तरीका सही नहीं था। इससे देश में काफी मौतें हुईं। 92 लाख लोग संक्रमित हो गए।

महामारी और उसके कारण अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान ने ट्रम्प कैम्पेन के सबसे खास मैसेज तरक्की और समृद्धि को कमजोर कर दिया। इसने उन चिंताओं को भी उजागर किया, जो कई अमेरिकियों के मन में अपने राष्ट्रपति के बारे में थीं।

सधा हुआ प्रचार अभियान

अपने राजनीतिक करियर के दौरान कई मुश्किलों के बावजूद बाइडेन ने अपने लिए एक बेहतर जगह बनाई है। 1987 में एक झूठ ने उनके पहले राष्ट्रपति अभियान को पटरी से उतार दिया था। 2007 में भी वे इसकी दौड़ से बाहर हो गए थे। अपनी 40 साल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और व्हाइट हाउस के लिए तीन कोशिशों के दौरान वे खुद को बहुत मजबूती से सामने नहीं रख पाए।

इस बार उनके सामने ऐसे राष्ट्रपति थे, जो खुद जानकारी का भरोसेमंद जरिया नहीं थे। इसी दौरान देश में कई घटनाओं ने लोगों का ध्यान खींचा। इनमें कोरोना वायरस, पुलिस की प्रताड़ना से अश्वेत जॉर्ज फ्लायड की मौत और अर्थव्यवस्था का पटरी से उतर जाना शामिल है।

बाइडेन कैम्पेन को इसका थोड़ा श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने ठोस रणनीति के तहत अपने उम्मीदवार के प्रदर्शन को सीमित रखा। उन्होंने अपने प्रचार अभियान को सधी गति से चलाया। थकान और लापरवाही से होने वाले नुकसान की संभावनाओं को कम कर दिया। उन्होंने पूरे कैम्पेन को संतुलित रखने पर ध्यान दिया। दूसरी ओर ट्रम्प लगातार टिप्पणियां करते रहे। उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी।

कोई भी हो, लेकिन ट्रम्प नहीं

वोटिंग वाले दिन से एक सप्ताह पहले बाइडेन कैम्पेन ने टीवी पर विज्ञापनों की शुरुआत की। इसमें अगस्त में नॉमिनेशन के दौरान दी गई बाइडेन की स्पीच भी थी। इसमें उन्होंने कहा था कि यह चुनाव अमेरिका की आत्मा की लड़ाई है। यह एक मौका है कि देश पिछले चार साल से चली आ रही अराजकता और लोगों को बांटने की कोशिशों को नकार दे।

इस नारे के पीछे बहुत सामान्य बात थी। बाइडेन ने इस शर्त पर अपने राजनीतिक भाग्य को दांव पर लगा दिया कि ट्रम्प बहुत ज्यादा ध्रुवीकरण करने वाले और भड़काऊ थे। वहीं, अमेरिकी शांत और स्थिर नेतृत्व चाहते थे। इसका एक उदाहरण फ्रांस के मूल निवासी थियरी एडम्स हैं। उनका कहना है कि मैं ट्रम्प के रवैये से बस थक गया हूं। 18 साल फ्लोरिडा में रहने के बाद उन्होंने मियामी में राष्ट्रपति चुनाव में अपना पहला वोट डाला।

डेमोक्रेट इस चुनाव को दो उम्मीदवारों के बीच मुकाबले के बजाय ट्रम्प के खिलाफ जनमत संग्रह बनाने में कामयाब रहे। बाइडेन का विजयी संदेश बस इतना रहा कि वे ट्रम्प नहीं थे। डेमोक्रेट्स में एक आम धारणा यह थी कि बाइडेन की जीत का मतलब था कि अब राजनीति के बारे में सोचे बिना अमेरिकी कई हफ्ते रह सकते हैं। यह मजाक के रूप में था, लेकिन इसमें सच्चाई भी थी।

हमेशा केंद्र में रहे

डेमोक्रेटिक उम्मीदवार बनने के अभियान के दौरान बाइडेन का मुकाबला बर्नी सैंडर्स और एलिजाबेथ वॉरेन के साथ हुआ। दोनों बहुत संगठित अभियान चला रहे थे। उनके कार्यक्रमों में किसी रॉक-कंसर्ट की तरह भीड़ पहुंच रही थी।

अपनी उदारवादी पृष्ठभूमि के बावजूद बाइडेन कुछ मुद्दों पर फंस गए। इनमें सरकार की ओर से चलाए जा रहे हेल्थकेयर प्रोग्राम, फ्री कॉलेज एजुकेशन और वेल्थ टैक्स से इनकार शामिल था।

उपराष्ट्रपति पद के लिए कमला हैरिस को चुनना बाइडेन की रणनीति का हिस्सा था, जबकि वे पार्टी की लेफ्ट विंग से किसी मजबूत उम्मीदवार को चुन सकते थे। एक मुद्दे पर बाइडेन सैंडर्स और वारेन के करीब नजर आए। यह पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन का मसला था। शायद इसके पीछे ऊर्जा क्षेत्र पर निर्भर स्विंग स्टेट के युवा वोटर्स के दूर जाने का जोखिम था।

ज्यादा पैसा, कम समस्याएं

साल की शुरुआत में बाइडेन कैम्पेन का खजाना खाली था। इन्हीं हालात में उन्होंने ट्रम्प से मुकाबले के लिए प्रचार अभियान में प्रवेश किया। हालांकि वे ट्रम्प की तुलना में नुकसान में थे, जिन्होंने अपने प्रचार पर करीब एक अरब डॉलर खर्च किए थे। अप्रैल के बाद बाइडेन कैम्पेन ने खुद को पूरी तरह बदल दिया। आर्थिक मदद जुटाने के मामले में उन्होंने अपने राइवल से बहुत मजबूती हासिल कर ली। अक्टूबर की शुरुआत में बाइडेन कैम्पेन के पास ट्रम्प की तुलना में 1065 करोड़ रुपये ज्यादा थे। इससे उन्हें कड़ी टक्कर वाले लगभग हर प्रमुख प्रांत में विज्ञापन के मामले में रिपब्लिकन को पीछे छोड़ने में मदद मिली।

हालांकि, इस काम में पैसा ही सब कुछ नहीं था। 4 साल पहले भी हिलेरी क्लिंटन कैम्पेन के पास ट्रम्प के मुकाबले ज्यादा रकम थी। 2020 में जब देश भर में कोरोना वायरस के कारण अमेरिकी घरों में थे। मीडिया और टीवी को ज्यादा समय दे रहे थे। तब बाइडेन ने भरपूर पैसा खर्च कर आखिर तक अपना संदेश पहुंचाया। उन्होंने टेक्सास, जॉर्जिया, ओहियो और आयोवा जैसे बड़े राज्यों में इस काम में खूब पैसा खर्च किया।

इसका फायदा रिपब्लिकन की मजबूती वाले एरिजोना और टक्कर वाले जॉर्जिया में भी मिला। पैसे प्रचार अभियान को बेहतर बनाने और विकल्प तैयार करने में मदद करते हैं और बाइडेन ने इसका सही इस्तेमाल कर फायदा उठाया।

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